उत्तराखण्ड का पर्वतीय क्षेत्र सदा से ही त्याग, तपस्या व बलिदान की भूमि रहा है। यहां के निवासी स्वभाव से सरल, कर्म से परिश्रमी, व्यवहार से ईमानदार तथा आदत से सहनशील रहे हैं। आजादी के दीवानों की भी यहां कमी नही रही है। ऐसा ही मातृ भूमि का अमर पुत्र कुमाऊँ क्षेत्र में अल्मोड़ा जनपद के सुदूर चौंकोट क्षेत्र के पठाना ग्राम में पण्डित बल्देव काण्डपाल के घर 1892 में पैदा हुआ। बच्चे की चमक ने उसको ज्योतिराम नाम दिलाया। बालक ज्योति राम की प्राथमिक शिक्षा स्थानिय विद्यालय में हुई। अल्मोड़ा में जूनियर हाई स्कूल व शिक्षक प्रशिक्षण प्राप्त कर स्याल्दें में शिक्षण कार्य आरम्भ किया ।
18 वर्ष की उम्र में पिता जी की छत्र-छाया जाती रही, जिसके कारण परिवार का सम्पूर्ण उत्तरदायित्व उनके भाईयों पर आ गया। ज्योतिराम बचपन से ही साहसी, निड़र व मुसीबतों से जुझने वाले व्यक्ति थे। तीस के दशक में ही पूरे चौंकोट की एक मात्र संस्था थी, जिसका प्रधानाध्यापक का पद ज्योतिराम जी द्वारा सुशोभित किया गया। ज्योति राम जी के मन में बचपन से ही शोषित पीड़ित, सामाजिक भेदभाव, छुआ छूत उन्मूलन व गुलामी की बेड़ी से स्वतन्त्रता प्राप्ति के उद्देश्य से घर से बाहर निकल पड़े उस समय पूरे देश में गांधी जी की लहर चली थी। सुदूर क्षेत्र का यह ग्रामीण निवासी बापू के 1926 में अल्मोड़ा आगमन पर उन से मिला व अत्यधिक प्रभावित होकर स्वतन्त्रता आन्दोलन के रचनात्मक कार्य में जुड़ने के लिये एक मात्र आजीविका का सहारा ‘‘शिक्षक पद’’ से त्याग पत्र दे दिया। गांधी जी से मिलने के बाद ज्योतिराम साबरमती आश्रम गये। वहां उन्होने कताई-बुनाई का प्रशिक्षण लिया तथा कार्यलय में पत्र व्यवहार कार्य भी सम्भाला। पण्डित ज्योतिराम हिन्दी साहित्य के अच्छे ज्ञाता थे। गांधी जी को जब गुजराती व अंग्रेजी में पत्रों का उत्तर देना होता था तो वे महादेव भाई या प्यारे लाल से लिखवाते थे किन्तु जब हिन्दी में पत्रों का उत्तर देना होता था तो पण्डित ज्योतिराम से लिखवाते थे।
12 मार्च 1930 को प्रातः काल गांधी जी ने देश में स्वतन्त्रता जागृति के उद्देश्य से साबरमती आश्रम में अपने अनुयायिओं के साथ डांडी यात्रा आरम्भ की तथा नमक कानून तोड़ा। इस यात्रा में भाग लेने के लिये ज्योतिराम अपने सहायक शिक्षक भैरव दत्त जोशी के साथ गये थे किन्तु भैरव दत्त बीमार होने के कारण डांडी यात्रा में भाग ना ले सके। ज्योतिराम गांधी जी के साथ डांडी यात्रा में कदम से कदम मिला कर चले। सुदूर उत्तराखण्ड के पर्वतीय भू-भाग से पश्चिमी तट पर पहुंचने वाले इस नमक सत्याग्रही का महत्वपूर्ण स्थान उस समय के सैनानीयों ने भी माना। नमक कानून तोड़ने के कारण उन्हे जेल की भी सजा काटनी पड़ी। गुजरात सरकार द्वारा जारी डांडी यात्रा सूची में ज्योतिराम जी का नाम 68वें क्रम में अंकित है। इतिहासकार डॉ0 धर्मपाल ने अपनी पुस्तक में लिखा है- ज्योतिराम जी द्वारा करादी, गुजरात कैम्प से अल्मोड़ा कांग्रेस कमेटी के नाम भेजे गये 29 अप्रैल 1930 के पत्र से पता चलता है कि वे नमक सत्याग्रह के लिये कितने उत्साही थे। ज्योतिराम जी के शब्दों में -‘‘आशा है कि दो या तीन दिन में यहां से उठकर सरकार के नमक के स्टॉक पर धावा किया जायेगा, अगर वहां से जीता जागता वापस आ गया तो फिर पत्र भेजूंगा, अन्यथा इसे अन्तिम पत्र मान कर स्वीकार कीजिए’’।
नमक सत्याग्रह में भाग लेने व देश-भ्रमण के पश्चात घर सकुशल पहुंच कर ज्योतिराम जी ने तीनों चौकोटों में जागृति फैलाने ओर खादी का प्रचार कर जन साधारण को स्वावलम्बी बनाने के उद्देश्य से देघाट में ‘‘उद्योग मन्दिर’’ की स्थापना की। इस मन्दिर के निर्माण में चौंकोट वासीयों ने तन-मन-धन से योगदान दिया। इसमें खादी प्रचार के साथ रोगियों के इलाज के लिये एक दवाखाना भी खोला गया, जहां रोगियों को मुफ्त दवा वितरित की जाती व स्वतन्त्रता आन्दोलन की रणनीति से प्रभावित होकर उनके सहयोगी भी बन गये। देघाट उद्योग मन्दिर के बाद ताड़ी खेत उद्योग भवन में भी वही कार्य प्रारम्भ किया। ज्योतिराम जी द्वारा भूलगांव में भी कुशल सिंह खर्कवाल के सहयोग से खादी उद्योग चलाया गया। ज्योतिराम जी जीवन भर मन, कर्म, व ह्दय से भारतीयता एवं स्वदेशी के पुजारी रहे। कई स्थानों में सूती व ऊनी वस्त्रों का उद्योग केन्द्र खोल कर व उद्योग संचालन कर उस समय कई बैरोजगार युवकों को रोजगार का साधन उपलब्ध कराया। जो उनकी दूर दृष्टि व स्थानीय बेरोजगारी हल करने का परिचायक है। ज्योतिराम जी के ज्येष्ठ पुत्र पण्डित बद्री दत्त कहते हैं, ‘‘गांधी जी ने कहा, ज्योतिराम तुम पर्वतीय क्षेत्र में रहकर स्वतन्त्रता-संघर्ष जारी रखो तथा इसके लिये उन्हे गांधी जी 100 रुपये महीना भेजा करते थे। पिता जी 50 रुपये गांधी जी को यह कह कर लौटा देते कि मेरा काम 50 रुपये में चल जाता है’’ ।
1932 में जन-जागृति को हतोत्साहित करने के उद्देश्य से कुमांऊ कमिशनरी पौड़ी से होते हुए देधार आया तथा देघाट उद्योग मन्दिर का ताला तोड़ कर सामान जब्त कर लिया। 1932 में सविनय अवज्ञा आन्दोलन में भाग लेने के कारण ज्योति राम जी को एक वर्ष की सख्त कैद व 200 रुपये जुर्माना किया गया। जुर्माना अदा न करने पर तीन माह की अतिरिक्त कैद की सजा हुई, जो उन्होंने बरेली जेल में काटी।
निर्धन घर में पैदा हुए इस बीर सेनानी को परिवार का आर्थिक संकट राष्ट्रीय आन्दोलन में भाग लेने से कभी रोक न पाए। ज्योतिराम जी की पांच सन्ताने, जिनमें दो पुत्र बद्री दत्त व भागवत दत्त तथा तीन पुत्रियां-मालती देवी, रुकमणी हुई। ज्योतिराम जी स्वदशी के प्रबल समर्थक थे। उन्होने ब्रिटिश संस्थाओं का सदा बहिष्कार किया। अपने बच्चों को सरकारी स्कूल में न पढाने का निश्चय को पूरा करने के लिये बड़े पुत्र को गुरुकुल महाविद्यालय, ज्वालापूर तथा छोटे पुत्र को गुरुकुल कागड़ी, हरिद्वार में पढ़ने भेजा।
ज्योतिराम जी छुआ-छूत व दिखावे से सदा दूर रहते थे। शेरी राम आर्य को उन्होने अपना जीवन भर सहयोगी बनाए रखा। दिखावे से दूर रहने का एक प्रकरण बड़ा रोचक है। गुजरात से लौटने पर ज्योतिराम जी के साथ राधाकृष्ण बजाज भी पर्वतीय क्षेत्र के दुर्गम रास्तों से होते हुए चौंकोट पहुचे। घर पहुचने पर उनकी पत्नी द्वारा ‘‘भटृ का जौला’’ बनाया गया था। जिसे मेहमान के सम्मुख परोसने में उन्हें असहजता महसूस हुई, तो उन्होने अपने पति से मेहमान के और व्यजंन बनाने के लिये पूछा। ज्योतिराम ने तुरन्त कहा, घर में जो भोजन बना है, वही मेहमान को परोसें। राधाकृष्ण बजाज को भटृ का जोला अत्याधिक पसन्द आया तथा अगले दिन वही व्यंजन बनाने के आग्रह किया।
ज्योतिराम जी के जीवन का एक संवेदनशील पहलू भी जुड़ा है। जब उनकी पुत्री विवाह योग्य हुई तो वे कहते थे कि मेरी पुत्री के लिये ऐसा वर-घर चाहिए जो गरीब, शिष्ट व परिश्रम का महत्व समझने वाला हो, यदि सास चिड़चिड़ी या कर्कश स्वभाव वाली हो तो कोई बात नही। संयोग से एसी एक बुढ़िया, जो अपने कर्कश स्वभाव से बदनाम थी, उसका व्यवहार अपनी बहुओं के प्रति अच्छा नही था, के बारे में जब ज्योतिराम जी को पता चला तो वे स्वयं अपनी पुत्री का रिश्ता लेकर उसके घर पहुंच गये। उनके साथियों ने उन्हे अपनी पुत्री के भविष्य से खिलवाड़ न करने की सलाह दी। ज्योतिराम जी कबीर व गांधी की शैली में विश्वास करते थे। उनमें बुराई को बुराई से नही अपितु स्नेह, सौहार्द एवं सद्व्यवहार से उपचार करने का हुनर था। और उनकी लड़की ने चिड़चिड़ी व कर्कश बुढ़िया को मृदु व्यवहार व गौमुखी गंगा में परिवर्तित कर दिया।
ज्योतिराम जी के पिता का कम उम्र में निधन होने के कारण उन्हे केवल माता जी की सेवा करने का अवसर ही प्राप्त हुआ। वे मातृभक्त व मातृभूमि भक्त दोनो ही थे। उन्होने अपनी माता जी को बदरीनाथ, केदारनाथ, रामेश्वरम, पुरी, हरिद्वार, द्वारिका आदि तीर्थ स्थलों के दर्शन कराये। ज्योतिराम जी ने अपनी व अपने परिवार की चिन्ता कभी नहीं की। जब तक जीवित रह, मातृभूमि को आजादी दिलाने के लिये प्रयास करते रहे। वह व्यक्ति, जिसने विश्राम न करने की कसम खाई थी, अस्वस्थता के कारण विश्राम के लिये बाध्य हो गया। 19 जनवरी 1938 का वो क्रुर दिन उनके लिये काल बन कर आया, जिसने उनके शरीर को मात्र 46 वर्षों में आत्मा से पृथक कर दिया।
ज्योतिराम जी की मृत्यु के बाद भी इस क्षेत्र में स्वतन्त्रता संघर्ष में कमी नही आई। उनकी प्रेरणा का एसा असर हुआ कि उनके कई साथी रहे शिक्षक व क्षेत्रवासी स्वतन्त्रता संग्राम में सक्रिय भूमिका अदा करने लगे। अगस्त 1942 के देघाट शहीद आन्दोलन में बलि-बेदी पर चढ़ने की भावना की चिंगारी ने पूरे चौंकोट के लोग ज्योतिराम जी के दिखाये मार्ग पर चलने की कसम खाकर इस अभियान में तन-मन से जुट गये, जिसमें दो सपूत शहीद व सैकड़ों लोग घायल हो गये। सैकड़ों को जेल यात्रा भी करनी पड़ी।
ज्योतिराम जी के साहस, धैर्य, त्याग, संघर्ष की भावना, सभी का हित सोचने का दृष्टिकोण, बराबरी की सोच व महान मनुष्य होने के कारण चौंकोट के शिक्षाविद, समाज सेवी, व जिला पंचायत सदस्य प्रताप सिंह मनराल उन्हे चौंकोट के गांधी के नाम से सम्बोधित करते थे। वर्तमान में उनके ज्येष्ठ पुत्र बद्री दत्त काण्डपाल रुंधे, किन्तु विनित स्वर में कहते हैं ‘‘जिस व्यक्ति ने देश के स्वतन्त्रता आन्दोलन में अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दिया, आजादी मिलने के 60 वर्षों के पश्चात और पिता जी की मृत्यु के 70 वर्षों बाद भी उनका ध्यान किसी को नही आया, उन्हें विस्मृत कर दिया गया। वे पाठ्य-पुस्तकों में स्थान नही बना पा सके। पुस्तकालय, विद्यालय, किसी को भी उनका नाम वर्तमान तक नही मिल पाया’’।
चौंकोट के लोग आज भी किसी सामाजिक व सामूहिक कार्य का शुभारम्भ करते समय डांडी यात्रा के अमर सैनानी को श्रद्धा-सुमन अर्पित करना नही भूलते हैं। भारत माता के अमर सपूत ज्योतिराम काण्डपाल जी ने जीवन भर त्याग, बलिदान, धैर्य, सहनशीलता व संघर्ष का रास्ता अपनाया। उनके द्वारा दिखाये गये मार्ग पर चलना ही ‘‘डांडी-यात्रा’’ सैनानी को सच्ची श्रद्धांजलि होगी।
nyc…good knowledge of uttrakhand history.
Thanks
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