गढ़वाल रेजिमेंट का इतिहास

रेजिमेंट की स्थापना
गढ़वाल का आधुनिक सैन्य इतिहास सन 1814-15 के नेपाल युद्ध की सताप्ति से शुरू होता है। जब ईस्ट इंड‌िया कंपनी ने गढ़वाल और कुमाऊं के पहाड़ी क्षेत्रों से व्यक्तियों को चुनकर सेना खड़ी की। यह भी रिकॉर्ड ‌म‌िलता है क‌ि नेपाल के कब्जे वाले इलाकों में अ‌‌ध‌िकता गढ़वाली व कुमांऊनी फोर्स ही थी। 1814 के खलंगा युद्ध में नेपाल फौज में भी अध‌िकांश यही भारतीय पहाड़ी लोग थे, इन सैनिकों के युद्ध कौशल से प्रभावित होकर अंग्रेजों ने गोरखों की पांच रेजिमेंटों की स्थापना की। जिसमें बहुत सारे वे सैनिक भी थे, जिन्होंने नेपाल युद्ध के बाद आत्मसमर्पण किया था, स्वाभाविक रूप से इस रेजिमेंट में बहुत सारे गढ़वाली भर्ती हुए थे।

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अफगान युद्ध में सूबेदार बलभद्र स‌िंह के अद्वितीय साहस और बीरता को देखकर तत्काली कमाण्डर-इन-चीफ फील्ड मार्सल सर एफएस रॉबर्टस् ने टिप्पणी की थी क‌ि एक कौम जो बलभद्र जैसा आदमी पैदा कर सकती है, उनकी अपनी अलग बटालयिन होनी ही चाह‌िए।
अफगान युद्ध के दौरान उनके महान योगदान के कारण सूबेदार बलभद्र स‌िंह को 1879 में ऑर्डर ऑफ मेरिट से सम्मानित किया गया। जब वह फील्ड मार्शल राबर्ट्स के एडीसी थे तब उन्हें ऑर्डर ऑफ ब्रिटिश इंडिया और सर्वोच्च सैनिक के पदक से सम्मानित किया गया।

बलभद्र स‌िंह ने कमांडर-इन-चीफ को अलग से गढ़वाली रेजिमेंट बनाने के ल‌िए प्रोत्साह‌त किया और उन्होंने इस प्रस्ताव को तत्कालीन वॉयसराय लार्ड डफरिन के पास भेजा। जनवरी 1886 में फील्ड मार्शल राबर्ट्स ने अलग गढ़वाली रेजिमेंट बनाने के ल‌िए अनुमोदन में ‌लिखाः ‘ये लोग एक उच्च योद्धा जात‌ि के होंगे, वर्तमान में 5वीं गोरखा में बहुत सारे गढ़वाली हैं, जिन्होंने बार-बार अपनी बहादुरी और वफादारी को साबित किया है और उनके अधिकारियों ने इसे स्वीकार किया है कि गढ़वाली शारीरिक सौष्ठव और वीरता में बिशुद्ध गोरखाओं के समान है। दूसरी गोरखा रेजिमेंट में गढ़वाली सैनिकों को उत्तम सैनिकों में गिना जाता है और सभी अधिकारी जो जात‌ि को जानते हैं उनकी उच्च सैन्य योग्यता के गुणगान करते हैं।’

अप्रैल 1887 में दूसरी बटालियन तीसरी गोरखा रेजिमेंट की स्थापना के आदेश दिए गए। जिससे 06 कंपनियां गढ़वालियों की और 02 कंपनियां गोरखाओं की थी। 5 मई 1887 को चौथी गोरखा के लेफ्टिनेंट कर्नल ईपी मेनवारिंग ने कुमांऊ क्षेत्र के अलमोड़ा में पहली बटालियन का गठन किया और 4 नवंबर 1887 को बटालियन गढ़वाल क्षेत्र में कालूडांडा पहुंची जिसको बाद में तत्कालीन वॉयसराय के नाम पर लैंसडाउन से जाना जाता है। 1891 में 2/3 गोरखा रेजिमेंट की दो कंपनियों से एक नई गारेखा पल्टन खड़ी की गई और शेष बटालियन का पुन: नया नाम बंगाल इन्फैन्ट्री की 39वीं गढ़वा रेजिमेंट रखा गया। बैज से गोरखाओं की खुंखरी को हटाकर उसका स्थान फोनिक्स (बाज) को दिया गया। जिसने गढ़वाल राइफल को एक अलग विशेष रेजिमेंट होने की पहचान दी। 1891 में फोनिक्स (बाज) का स्थान माल्टीज क्रास ने लिया जिस पर ‘द गढ़वाल राइफल’ अंकित था तथा बैज के ऊपर पंचख फैलाए बाज था। यह पक्षी शुभ माना जाता था और इससे गढ़वालियों की सैना में अपनी पहचान का शुभारंभ हुआ। यद्दपि ये शुरू से हरी जैकेट पहनते थे परंतु 1892 में अधिकारिक तौर पर राइफल्स की उपाधि मिली। जब इसका नाम उन्तालीसवीं (द गढ़वाल राइफल्स) रेजिमेंट ऑफ बंगला इन्फैन्ट्री रखा गया।

प्रथम विश्वयुद्ध
अगस्त 1914-15 में प्रिाम विश्वयु। के दौरान रजिमेंट की प्रथम और द्वितीय बटालियनों ने मेरठ डिविजन की प्रसिद्ध गढ़वाल ब्रिगेड के अंर्तगत फ्रांस के युद्ध में हिस्सा लिया था। ब्रिगेड की अन्य बटालियन थी 2 लीस्टरर्स और 2/3 गोरखा। फ्रांस में भारतीय ने 5 विक्टोरिया क्रास जीते जिनमें से 3 गढ़वाल ब्रिगेड ने जीते थे। लीस्टरर्स के कर्नल ने गढ़वालियों के फ्रांस में बिताए वर्ष के बारे में लिखा है कि “वह निश्चय ही एक दिखावे वाली रेजिमेंट नहीं थी, हमने शीघ्र ही देख लिया था कैसे बहादुर हमारे साथ जुड़े थे, वे अपने कार्य को त्वरित गति से करते थे। उन्होंने दूसरी भारतीय यूनिटों के मुकाबले जल्दी ही मौसम और लड़ाई की विपरीत परिस्थितियों पर काबू पा लिया था। उन्होंने अपने हौसले को कभी नहीं खोया, यद्दपि उनकी काफी क्षति हुई।”

दूसरा विश्व युद्ध
1941-42 में द्वितीय विश्वयुद्ध की घोषणा पर लैंसडाउन में 7 नई बटालियनों की स्थाना करके रजिमेंट में वृद्धि की गई। सातवीं बटालियन का गठन लेफ्टिनेंट कर्नल डीजी लॉन्डस के नेतृत्व में 1 जुलाई 1942 को किया गया। इस दौरान रजिमेंटल सेंटर ने अपना कर्तव्य पूर्णत: निभाया। प्रत्येक वर्ष औसत 200 रिक्रूट्स भर्ती होते थे। लेकिन 1941-42 में यह आंकड़ा 6 हजार तक पहुंच गया। गढ़वालियों के अभूतपूर्व सैन्य योगदान की कल्पना इस बाते से होती है कि उस समय ब्रिटिश गढ़वाल (जनपद पौड़ी) के व्यस्क पुरुषों की जनसंख्या लगभग 1 लाख थी। जिनकी उम्र मिलिट्री में भर्ती होने लायक थी और उनमें से लगभग 26 हजार लोग भर्ती हुए।

प्रथम बटालियन:जून 1945 में बर्मा युद्ध में बहुत अच्छा प्रदर्शन करने के उपरांत बटालियन आराम के लिए भारत वापस आ गई। बटालियन को “मोनीवा’ “येनागंयुगं’ “नगाक्येडॉक पास’ “रामरी’ “तोन्गुप’ और “नार्थ अराकन’ युद्ध सम्मानों से सम्मानित किया गया।

द्वितीय बटालियन:दिसंबर 1941 से जनवरी 1942 तक बटालियन ने कुंतन पर विभिन्न दिशाओं से जापानी हमलों को विफल किया। अब आदेश मिला कि “मारन’ की ओर कूच करो। इस मार्च के दौरान जापानियों ने अनेक हमले किए जिसके परिणाम स्वरूप बटालियन को भारी क्षति हुई। बटालियन को “कुंतन’ युद्ध सम्मान तथा “मलाया 1941-42′ और “बर्मा 1942-45′ थिएटर सम्मान से नवाजा गया।

तीसरी बटालियन:तीसरी गढ़वाल ने अफ्रिका में युद्ध कौशल और बहादुरी के साथ लड़ाइयां लड़ी। इनमें कुछ ऐतिहासिक युद्ध “गलाबात’ (सुडान) “वारेन्ट’ “केरीन’ “मस्सावा’ और “अम्बा अलागी’ इटालियनों के विरुद्ध लड़े गए। यूनिट को इन युद्ध सम्मानों से भी नवाजा गया।

चौथी बटालियन:लेफ्टिनेंट कर्नल टी आई स्टेवैन्सन, सीआईई, एमबीई, एमसी ने 20 जून 1940 को चौथी बटालियन का लैंसडाउन में पुनर्गठन किया। लड़ाई का समय होने के कारण मात्र तीन माह की ट्रेनिंग, कम संसाधन व कपड़ों के बावजूद दिसंबर 1941 को “खैबर दर्रे’ को जाने से पहले इसने उत्तर पश्चिम सीमा में गैरीजन ड्यूटी के लिए प्रस्थान किया। बटालियन ने “बूधीद्वाग-मौगडो’ सुरंग क्षेत्र (अकारन, बर्मा) में जंगल युद्ध की ट्रे नंग प्राप्त की। बर्मा में बटालियन ने जापानी आक्रमणों का सामना किया। 14 सितंबर को हवाई अड्‌डे में एक ऐतिहासिक आत्मसमर्पण परेड के दौरान 8 हजार जापानियों को बटालियन ने शस्त्रविहीन किया।

पांचवीं बटालियन:1 फरवरी 1941 को लेफ्टिनेंट कर्नल जेएमसी बुलट्रीज द्वारा पांचवीं बटालियन का गठन लैंसडाउन में किया गया। 1 जनवरी 1942 को “मुआर (मलाया)’ में कार्यवाही के समय बटालियन अपरिपक्व और नई थी। कुछ सामान्य सफलता हासिल करने के बाद बटालियन को भारी जापानी आक्रमणों का सामना करना पड़ा। यहां 16 अधिकारी और 902 जवानों वाली इस बटालियन के 9 अधिकारी और 482 जवान इस युद्ध में मारे गए और 168 जवान घायल हो गए। इस तरह बटालियन का अस्तित्व लगभग समाप्त हो गया।

छठी बटालियन:15 सितंबर 1941 को लेफ्टिनेंट कर्नल एच रैनविक द्वारा लैंसडाउन में छठी बटालियन गठित की गई। यह उत्तर-पश्चित सीमान्त के लांडी कोटल, बलूचिस्तान व रजमक में युद्ध के लिए तैनात रही। तत्पश्चात सिंगापुर को कब्जे में लेने के लिए तैयार फोर्स का हिस्सा रही लेकिन इनके कूच करने से पहले ही युद्ध समाप्त हो गया।

सातवीं बटालियन:लेफ्टिनेंट कर्नल डीजी लोन्डस ने पहली जुलाई 1942 को सातवीं बटालियन का गठन किया। अधिकांश समय तक यह प्रशिक्षण ड्यूटी में रही। अक्टूबर 1942 में इसको एक प्रशिक्षण यूनिट बना दिया गया।

आजादी के बाद का इतिहास
1947-20051947 में भारत और पाकिस्तान दो स्वतंत्र देश बने। इस निर्णय से भारतीय सेना की बहुत सारी रेजिमेंटों को विभाजित होना पड़ा। भाग्य से गढ़वाल राइफल्स इस पीड़ा से बच गई। क्यों कि गढ़वाल राइफल्स में केवल गढ़वाली सैनिक ही भर्ती होते थे। इसी वजह से रेजिमेंट की पूरी विश्वसनीयत और लड़ाई के क्षेत्र में प्रभुता पूर्णतया कायम रहा। उन भयानक दिनों में यूनिटें कानून व्यवस्था बनाने में सिविल प्रशासन की मदद के लिए महत्वपूर्ण कार्य कर रही थी।

जम्मू-कश्मीर में ऑप्रेशन, 1947-48
जब भारतीय सेना भारत-पाक सीमा पर सांप्रदायिक दंगों को रोकने और लाखों शरणार्थियों को सुरक्षा देने के महान कार्य में लगी थी। पाकिस्तान ने अक्टूबर 1947 में छल से हजारा सैनिक, घुसपैिठयों को कबाइलियों के रूप में जम्मू-कश्मीर में भेजा ताकि वहां के राजा को पाकिस्तान में अपने राज्य को विलय करने के लिए विवश किया जा सके। महाराजा हरि सिंह ने 26 अक्टूबर 1947 को भारत के साथ विलय को स्वीकार करते हुए भारत से तुरंत सैनिक सहायता की मांग की। घुसपैठियों को खदेड़ने के लिए रेजिमेंट की दो बटालियनों-तृत्ीय और प्रथम ने हिस्सा लिया।

टिथवाल का युद्ध
योजना के अनुसार तीसरी बटालियन को लेहगाम रिज से हमला कर उस पर कब्जा करना था और शेष ब्रिगेड को दक्षिण की ओर से टिथवाल की तरफ बढ़ना था। 18 मई 1948 की प्रात: हमला शुरू हुआ। शत्रु के जबरदस्त विरोध के बावजूद बटालियन ने अपने दृढ़ निश्चय औश्र वीरता का परिचय देते हुए शाम तक अपने लक्ष्य को पा लिया। शत्रु को भारी क्षति के कारण पीछे हटना पड़ा और अपने पीछे बड़ी संख्या में रशन और गोला बारूद छोड़कर भागना पड़ा। तृतीय बटालियान को “टिथ्वाल” युद्ध सम्मान (बैटल ऑनर) से सम्मानित किया गयाा। िटथवाल युद्ध में बटालियन ने बहुत सरे वीरता पुरस्कार प्राप्त किए 1 महावीर चक्र, 18 वीर चक्र, 1 शौर्य चक्र व 19 मेंशन-इन-डिस्पेचिज। एक अकेले ऑप्रेशन में इनते वीरता पदक गढ़वाली साहस और कार्यनिष्ठा के प्रतीक हैं। जिसे दोहराना किसी भी रेजिमेंट के लिए लगभग असंभव है। इस सम्मान के बदले में बटालियन को भारी कीमत चुकानी पड़ी। बटालियन ने अपने 25 जवानों को खोया और 5 अधिकारी और 113 अन्य पद घायल हुए। प्रथम बटठालियन ने चिनाल डोरी पर कब्जा किया और चिनाल डोरी-छोटा करजीनांग क्षेत्र पर दुश्मन के हमलों को विफल करते हुए 1949 में युद्ध समाप्त होने तक डटे रहे। प्रथम बटालियन ने इन ऑप्रेशनों में 16 मेंशन-इन-डिपेचिज प्राप्त किए।

भारत-चीन युद्ध- 1962
सितंबर 1962 में चौथी बटालियन नेफा के लिए रवाना हुई और जंग क्षेत्र में शीघ्रतापूर्वक रक्षात्मक कार्यवाही करते हुए चीनी सेना को आगे बढ़ने से रोका। 24 अक्टूबर 1962 को बटालियन को जंग से वापस आने और नूरानांग में “सेला’ की सुरक्षा के लिए तैनात होने का आदेश मिला। यहां घमासान युद्ध हुआ। दुश्मन को काफी नुकसान हुआ। लांस नायक त्रिलोक सिंह नेगी के नेतृत्व में एक टुकड़ी ने सफलता पूर्वक दुश्मन की मशीनगनों को शांत किया और इसे कब्जे में लेकर वापसी के दौरान रा. मैन जसवंत सिंह और लांस नायक त्रिलोक सिंह नेगी बहादुरी से लड़ते हुए इस कार्रवाई में शहीद हो गए। बटालियन ने अगले 48 घंटों में लड़ाई में अभूतपूर्व रक्षात्मक कार्यवाही की। बटािलयन को बहुत अधिक संख्या में जनहानि उठानी पड़ी। 3 अिधकारी, 5 जेसीओ और 148 अन्य पद तथा 7 गैर लड़ाकू सैनिक मारे गए और 65 अन्य पद और 3 गैर लड़ाकू सैनिक घायल हुए। चौथी बटालियन एक मात्र बटालियन थी, जिसे नेफा क्षेत्र में “नूरानांग’ बैटल ऑनर से सम्मानित किया गया। अब नूराांग क्षेत्र को जसवंत गढ़ के नाम से जाना जाता है। इन्हें मरणोपरांत “महावीर चक्र’ से सम्मानित किया गया था। बटालियन के कमांडिंग ऑफिसर लेफ्टिनेंट कर्नल (बाद में मेजर जनरल) बीएम भट्‌टाचार्जी को कुशल नेतृत्व के लिए “महावीर चक्र’ से सम्मानित किया गया। बटालियन को 7 बीर चक्र, 1 सेना मैडल और 1 मेंशन-इन-डिस्पेचिज भी मिले।

भारत-पाक युद्ध 1965
गदरा शहर की लड़ाई (राजस्थान सेक्टर) सितंबर 1965 में प्रथम बटालियन ने राजस्थान सेक्टर में “ऑपरेशन रिड़ल’ में भाग लिया। बटालियन को सीमा पर स्थित पाकिस्तान के गदरा शहर पर कब्जा करने का आदेश मिला, जिसकी सुरक्षा सिंधु रेंजर्स कर रहे थे। इनकी बटािलयन की सहायता में टैंकों की एक स्क्वाड्रन थी। बटालियन ने 6 सितंबर 1965 को 0300 से भारी गोलाबारी की। गढ़वालियों के अप्रतिमम शौर्य और कमांडरों का कुशल नेतृत्व प्रत्येक स्तर पर अनुकरणीय रहा और भारी दबाव के कारण दुश्मन का सुरक्षा घेरा टूट गया और दोपहर तक गदरा शहर पर कब्जा हो गया। नए इन्फेन्ट्री डिविजन की यह पहली सफलता थी। बटालियन का दूसरा वीरता अभियान, दुश्मन के मजबूत गढ़ “जस्सी के पार’ “नवा तला’ और “मियाजलार’ पर कब्जा कर सफलता पूर्वक समाप्त हुआ। बटालियन को “गदरा सिटी’ युद्ध सम्मान व “राजस्थान 1965′ थिएटर ऑनर से सम्मानित किया गया। बटालियन को 3 वीरचक्र और 5 मेंशन-इन-िडस्पेचिज प्राप्त हुएा। इन ऑपरेशनों में 7 अन्य पद शहीद हुए तथा 2 अधिकारी एवं 38 अन्य पद घायल हुए। 5 अगस्त 1965 को द्वितीय बटालियन को गलूठी इलाके (जम्मू-कश्मीर) में पाकिस्तानियों (घुसपैठियों) को ढूंढने का कार्य मिला। उनके पेट्रोल को भारी मशीनगर और मोर्टर फायर का सामना करना पड़ा। कप्ता सीएन सिंह ने रात में हमला करने का साहसी फैसला लिया। लेकिन दुश्मन की पोस्ट से 10 गज दूर मशीनगन की फायर से वे वीरगति को प्राप्त हुए। इस सेक्शन में दुश्मन के 6 जवान मारे गए और बहुत सारे जख्मी भी हुए। दुश्मन अपनी पोस्ट में हथियार गोला-बारूद और साजो-सामान छोड़कर पीछे भाग गए। इस आॅपरेशन में कप्तान सीएन सिंह की अद्भुत वीरता पर उन्हें मरणोपरांत महावीर चक्र से सम्मानित किया गया।

फिलौरा की लड़ाई (सियालकोट सेक्टर)
छठी बटालियन के पश्चिमी सेक्टर में 1965 के ऑपरेशन में सक्रिय हिस्सा लिया। इसने फिलौरा की डटकर हिफाजत की और दुश्मन के कईहमलों को विफल किया। बटालियन को “पंजाब 1965′ थिएटर ऑनर से सम्मानित किया गया। इसके साथ-साथ कई वीरता पदक जीते। इस ऑपरेशन में बटालियन ने 1 अधिकारी, 1 जीसीओ और 11 अन्य पद खोए। बटालियन को 6 मेंशन-इन-डिस्पेचिज प्राप्त हुए। हर साल 13 सितंबर को “फिलौरा दिवस’ के रूप में मनाया जाता है।

बुटर डोगरांडी की लड़ाई (सियालकोट सेक्टर)
आठवीं बटालियन को 16 सितंबर 1965 को बुटर डोगरांडी पर कब्जा करने का आदेश मिला। बटालियन के कमान अधिकारी घायल होकर वीरगति को प्राप्त हुए। कमान अधिकारी की मौत बटालियन के लिए विपत्ति के रूप में आई। लेकिन बटािलयन ने धैर्य नहीं छोड़ा और सेकेंड-इन-कमांड के नेतृत्व में विकट परिस्थितियों का सामना करते हुए बड़े जोश से बुटर डोगरांडी पर अाक्रमण किया और सूर्यास्त तक इस पर कब्जा कर लिया। इन विपरीत परिस्थितियों में दुश्मान की भारी गोलाबारी के दौरान यह एक अनोखा ऑपरेशन था। बटालियन को “बुटर डोगरांडी’ बैटल ऑनर से सम्मानित किया गया। बटालियन ने 2 अधिकारी और 4 अन्य पद खोए। 3 अधिकारी, 4 जेसीओ और 95 अन्य पद घायल हुए। बटालियन ने 1 वीरचक्र, 1 सेना मैडल और 6 मेंशन-इन-डिस्पेचिज प्राप्त किए।

भारत-पाक युद्ध 1971 (हिल्ली युद्ध पूर्वी पाकिस्तान)
5वीं बटालियन जोकि 202 माउंटेन ब्रिगेड का हिस्सा थी, बंगलादेश के हिल्ली सेक्टर में वासुदवेपुर, मोरापारा और देवखण्डा में बहादुरी के साथ युद्ध करते हुए वासुदवेपुर पोस्ट पर कब्जा कर लिया। 3 दिसंबर 1971 को बटालियन ने दुश्मन पर कई बार धावा बोला गया क्यों वह अपनी स्थिति को निरंतर मजबूत कर रहा था। बटालियन ने अंतत: दुश्मन पर विजय प्राप्त की ओर केवल उसकी युद्ध क्षमता ही समाप्त नहीं की बल्कि हिल्ली में हमारी ब्रिगेड पर काउंटर अटैक करने के उसके इरादे को भी नाकाम किया। इस लड़ाई में दुश्मन को भारी क्षति उठानी पड़ी। उसके 70 जवान मारे गए और करीब 10 टन गोला बारूद जब्त किया गया। 16 दिसंबर 1971 को युद्ध समाप्त होने पर लेफ्टिनेंट कर्नल मोहम्मद सलीम जिया, कमान अधिकारी 8 पंजाब बटालियन (पाक) ने अपनी बटालियन के साथ गढ़वालियों के समक्ष आत्मसमर्पण किया। ऑपरेशन में इस वीरता के लिए बटालियन को “हिल्ली’ युद्ध सम्मान और “पूर्वी पाकिस्तान 1971′ थिएटर ऑनर से सम्मानित किया गया। बटालियन को 3 वीरचक्र 3 सेना मैडल और 7 मेंशन-इन-िडस्पेचिज प्राप्त हुए। इस बटालियन ने अपने 2 अधिकारी, 1 जेसीओ और 15 अन्य पद खोए जबकि 7 अफसर, 3 जेसीओ और 69 अन्य पद घायल हुए।

रायपुर क्रासिंग का युद्ध
एक और स्मरणीय लड़ाई पश्चिमी थ‌िएटर में रेजिमेंट की दसवीं बटालियन द्वारा लड़ी गई। बटालियन अखनूर-जौरियां में तैनात थी, जहां पाकिस्तान ने एक निर्णायक हमले का प्रयास किया। 10-11 दिसंबर 1971 की रात में लेफ्टिनेंट कर्नल ओंकार सिंह कमान अधिकारी ने खुद एक हमलो की कमान संभाली जिसमें वे सफल भी हुए, लेकिन स्वयं बुरी तरह घायल हो गए और अंत में वीर गति प्राप्त की।
गढ़वाल राइफल्स परिवार 2005 गढ़वाल राइफल्स परिवार में अब 19 बटालियनें (दूसरी से उन्नीसवी और गढ़वाल स्काउट्स) हैं। रेजिमेंट की प्रथम बटालियन मेकेनाइज्ड बन चुकी है। जिसका नाम अब 6 मेकेनाइज्ड इन्फैन्ट्री (1 गढ़वाल राइफल्स) है। रेजिमेंट सभी स्थाई 19 बटालियनों को जवान उपलब्ध कराती और कार्यकाल के आधार पर स्थाई बटालियनों से राष्ट्रीय राइफल्स को जवान उपलब्ध कराती है। तीन राष्ट्रीय राइफल्स, 14 आरआर (गढ़वाल राइफल्स), 36 आरआर (गढ़वाल राइफल्स) और 48 आरआर (गढ़वाल राइफल्स) रेजिमेंट से जुड़ी है। स्थाई बटालयिनों के अलावा रेजिमेंट में 2 प्रादेशिक सेना (टीए) बटालियन, 121 इन्फेन्ट्री बटालियन (टीए) कोलकाता में और 127 इन्फेंन्ट्री बटालियन (टीए) पर्यावरण देहरादून में है। रेजिमेंट के सै‌निक बिशुद्ध गढ़वाली हैं, जो उत्तराखण्ड गढ़वाल मंडल के पहाड़ी जिलों से आते हैं।

प्रत‌िविद्रोहिता अभियान
स्वतंत्रता के बाद के युग में रेजिमेंट प्रतविद्रोहिता अभियानों में भी हिस्सा लेती रही है और इन अभियानों में महान उपलब्ध‌ियों के साथ सेवा की। ब्लू स्टार, आरकिड, राइनो और रक्षक अभियानों में गौरवशाली कार्य किया। अपनी शारीरिक विशेषताओं, दृढ़ता व युद्ध कौशल के कारण गढ़वाली गुरिल्ला युद्ध में आतंकवादियों के खिलाफ निपुण सद्ध होते हैं। इसकी सत्यता इससे प्रतीत होती है क‌ि रेजिमेंट को मिले अब तक 16 चीफ ऑफ आर्मी स्टाफ यूनिट साइटेशन में से 13 प्रत‌िविद्रो‌हिता अभियानों में प्राप्त हुए हैं। यह सम्मान 1990 से उत्कृष्ट प्रदर्शन करने पर यू‌निट को प्रदान किया जाता है।

ऑप्रेशन ब्लू स्टार, जून 1984
ऑप्रेशन ब्लू स्टार के दौरान रेजिमेंट की सातवीं और नौवीं बटालियन ने उत्कृष्ठ कार्य करते हुए कर्तव्य निष्ठा पूर्वक अपना दाइत्व निभाया। इस संवेदनशील ऑप्रेशन में 9वीं बटालियन के 7 अन्य पद शहीद हुए और 10 अधिकारियों में से 8 घायल हो गए। नायक भवानी दत्त जोशी ने बहादुरी से लड़ते हुए सर्वोच्च बलिदान दिया, जिसके ल‌िए इन्हें मरणोंपरांत अशोक चक्र से सम्मानित किया गया। नौवीं बटालियन ने इसके अलावा 2 कीर्ति चक्र, 2 शौर्य चक्र और एक सेना मैडल भी जीता।

ऑप्रेशन पवन भारतीय शांत‌ि सेना आईपीकेएफ
महान उपलब्धियों के साथ छै बटालियन चौथी, ग्यारहवीं, बारहवीं, तेरहवीं, सोलहवीं और अठारहवीं ने भारतीय शांत‌ि सेना आईपीकेएफ का हिस्सा बनकर एलटीटीई के‌ ख‌िलाफ श्रीलंका में ऑप्रेशन पवन में भाग ल‌िया। यह क‌िसी भी रेजिमेंट की उस द्वीप में एक ही समय पर सबसे अधिक मौजूदगी थी।

ऑप्रेशन ‌विजय कारगिल जम्मू और कश्मीर
लद्दाख क्षेत्र के कारगिल व द्रास उपक्षेत्रों से पाकिस्तानी घुसपैठियों को मार भगाने में ऑप्रेशन विजय के दौरान रेज‌िमेंट ने सराहनीय कार्य क‌िया।

दसवीं बटालियन:बटालियन नियंत्रण रेखा पर तैनात थी। बटालियन जिम्मेदारी के इलाके को छोड़कर बटालिक से लेकर मुश्कोह घाटी तक पाकिस्तानी सिपाही हर जगह भारतीय क्षेत्र में घुसपैठकरने में कामयाब हो गए थे। यह बटालियन की व्यवसायिक योग्यता और उच्च कर्तव्यनिष्ठा को दर्शाता है। इस अभियान के दौरान बटालियन के 8 अन्य पद शही हुए तथा 24 अन्य पद घायल हुए।

सत्रहवीं बटालियन:जून 1999 में बटालियन को बट‌ालियन को बटालिक सब सेक्टर के जुबार, थारू और कुकरथांग के कालापत्थर और बम्प 1, 2 और 3 पर कब्जा करने की जिम्मेदारी सौंपी गई थी। दुश्मान की ऊंचाई से, बारिश और विषम मौसम के बावजूद बटालियन ने 13 जुलाई 1999 को सैन्य रणनीति की दृष्टि से अत‌ि महत्वपूर्ण इन ऊंचाई वाले क्षेत्रों पर कब्जा कर लिया। रेजिमेंट की बहादुरी की परम्परा को बनाए रखते हुए कप्तान जिन्तू गोर्गइ ने इस लड़ाई में सर्वोच्च बलिदान दिया। बटालियन को इस युद्ध में थ‌िएटर ऑनर कारगिल व बैटल ऑनर बटालिक से सम्मानित किया गया। बटालियन को 1 वीरचक्र, 3 सेना मैडल और 3 थल सेनाध्यक्ष प्रशंसा पत्रों के साथ-साथ उत्तरी कमान के जीओसी-इन-सी की ओर से यूनिट सम्मान साइटेशन भी प्रदान किया गया। इस ऑप्रेशन में यूनिट का एक अधिकारी एक जसीओ और 19 अन्य पद शही हुए तथा दो अधिकारी, दो जीसीओ और 28 अन्य पद घायल हो गए।

अठाहरवीं बटाल‌ियन:द्रास सब सेक्ट की नियंत्रण रेखा को फिर से बहाल करने का काम इस बटालियन को मिला। जून और जुलाई 1999 के बीच बटालियन ने अद्वितीय साहसिक कार्यवाही करते हुए प्वाइंट 5140 और प्वाइंट 4700 अपने कब्जे में ले ल‌िए। इस ऑप्रेशन में कप्तान सुमित राय ने अपना सर्वोच्च बलिदान दिया। इन्हें मरणोपरांत वीरचक्र नवाजा गया। इस बहादुर सैनिक को इज्जत, सम्मान प्रदान करते हुए इस चोटी का नाम बदलकर सुमित चोटी रखा गया।
बटालियन ऑप्रेशन विजय में थ‌िएटर ऑनर कारगिल व बैटल ऑनर द्रास और सेनाध्यक्ष के यू‌निट सम्मान से नवाजा गया। इसके अलावा 6 वीर चक्र, 7 सेना मैडल और बटालियन के कमान अधिकारी की वार-टू सेना मैडल प्रदान किया गया। बटालियन के इस लड़ाई में 1 अधिकारी और 19 पद शहीद हुए। 3 अधकििरी, 5 जेसीओ और 48 अन्य पद घायल हुए।

रेजिमेंट का घर लैन्सडाउन 1887 में तीसरी गोरखा से एक प्रस्ताव‌ित गढ़वाली रेजिमेंट बनाने के लिए जब उसकी दूसरी बटा‌लियन का गठन हुआ तो उसके लिए स्थान की आवश्यक्ता महसूस की गई। इसके लिए एक घर की कल्पना गढ़वाल जिल्ले के कलेक्टर मिस्टर जेएस कैंपवेल आईसीएसने कर रखी थी। रुहेलखण्ड जनपद के जनरल ऑफिसर ब्रिगेडियर जनरल आई मर्रे ने अंतिम रूप में कालडांडा का चयन किया। 21 सितंबर 1890 को निर्णय लिया गया कि छावनी का नाम भारत के तत्कालीन वाइसरॉय लार्ड हेनरी लैन्सडाउन के नाम पर लैंसडाउन रखा जाए।

-साभारः गढ़वाल राइफल्स, शूरवीरता की परम्परा
-चंद्रमोहन ढौंड‌ियाल, व‌िरक कॉलोनी, पटियाला

2 Responses on “गढ़वाल रेजिमेंट का इतिहास”

Balbir singh rana "adig" says:

मान्यवर आपके द्वारा प्रस्तुत किया गया गढ़वाल राईफल का इतिहास की भूरी भूरी प्रसंसा करता हूँ।आपने संक्षिप्त में प्रस्तुत किया अपेक्षा करता हूँ कि आपकी आगामी पोस्ट संक्षेप में हो जिनमें 14 गढ़वाल राईफल जैसी शूर अन्य बटालियनो का इतिहास भी सम्मलित हो। इसके लिए आपको सोर्स गढ़वाल राईफल रेजिमेंट सेंटर के डाइजेस्ट से प्राप्त होगा।

Regards
Balbir singh rana “adig”

gemini says:

आपको आर्टिकल अच्छा लगा इसके लिए बहुत-बहुत धन्यवाद। उम्मीद है आप हमारे साथ ऐसे ही जुड़े रहेंगे।