हिमालय की तलहटी में बसा जौनसार-बावर, उत्तराखंड का एक जनजातीय क्षेत्र, अपनी समृद्ध संस्कृति और गौरवशाली इतिहास के लिए जाना जाता है। यहाँ की भूमि ने ऐसे वीर सपूतों को जन्म दिया, जिन्होंने अपने अदम्य साहस से इतिहास के पन्नों को स्वर्णिम बनाया। इनमें से एक नाम है नंतराम नेगी, जिनकी शौर्यगाथा आज भी लोकगीतों में गूंजती है। मुगल सेना के खिलाफ उनकी वीरता ने उन्हें “गुलदार” की उपाधि दिलाई और भारत के युद्ध इतिहास में एक अमिट छाप छोड़ी।
जौनसार-बावर, देहरादून के पश्चिमी छोर पर स्थित, भले ही भौगोलिक रूप से दुर्गम हो, लेकिन यहाँ की संस्कृति और परंपराएँ इसे अनूठा बनाती हैं। प्राकृतिक सौंदर्य से भरपूर यह क्षेत्र सादगी और साहस का संगम है। इसी वीरभूमि में 1725 के आसपास नंतराम नेगी का जन्म हुआ। उस समय यह इलाका सिरमौर रियासत का हिस्सा था, जिसकी राजधानी नाहन (अब हिमाचल प्रदेश) में थी। नंतराम के पिता लाल सिंह और माता झंझारी देवी थे। बचपन से ही नंतराम में तलवारबाजी और जोखिम भरे खेलों का जुनून था। उनकी फुर्ती और नन्ही उम्र में दिखाया गया साहस उन्हें सिरमौर के राजा शमशेर प्रकाश की सेना में ले आया।
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हिमालय की गोद में बसा उत्तराखंड न केवल अपनी प्राकृतिक सुंदरता के लिए जाना जाता है, बल्कि यहाँ की मिट्टी ने उन अनगिनत नायकों को जन्म दिया है, जिन्होंने देश के इतिहास को स्वर्णिम अक्षरों में लिखा। यहाँ की दुर्गम पहाड़ियाँ, घने जंगल और कठिन जीवनशैली के बीच पनपी वीरता और देशभक्ति की कहानियाँ आज भी प्रेरणा का स्रोत हैं। इन्हीं कहानियों में एक नाम चमकता है—अनुसूया प्रसाद बहुगुणा, जिन्हें गढ़वाल की जनता ने ‘गढ़केसरी’ की उपाधि से नवाजा। यह नाम न केवल उनकी शेरदिली का प्रतीक है, बल्कि स्वतंत्रता संग्राम में उनके अतुलनीय योगदान का भी गवाह है।
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उत्तराखंड भारत की सांस्कृतिक, आध्यात्मिक और ऐतिहासिक धरोहर को संजोने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। इस पावन भूमि ने अनेक विभूतियों को जन्म दिया है, जिन्होंने विभिन्न क्षेत्रों में देश और दुनिया में अपनी अमिट छाप छोड़ी है। इन्हीं महान व्यक्तित्वों में से एक हैं बैरिस्टर मुकुंदीलाल।
बैरिस्टर मुकुंदीलाल को एक प्रसिद्ध वकील, कुशल प्रशासक, कला मर्मज्ञ, लेखक, पत्रकार, शिकारी, फोटोग्राफर, पक्षी और पुष्प प्रेमी के रूप में जाना जाता है। वे अपनी सृजनात्मक और गुणात्मक विशिष्टताओं के लिए प्रसिद्ध थे।
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गढ़वाल में स्वतंत्रता संग्राम और जन जागरण के अग्रणी योद्धा भैरव दत्त धूलिया का जन्म 1900 में पौड़ी गढ़वाल के मदनपुर पट्टी लंगूर वल्ला डाडामंडी गांव में हुआ था। उनके पिता का नाम हरदत्त था।
भैरव दत्त धूलिया गढ़वाल कांग्रेस कमेटी के संस्थापक सदस्यों में से एक थे। 1921 में, उन्होंने मुकंदीलाल, अनुसूया प्रसाद बहुगुणा, मंगतराम खंतवाल, केशर सिंह रावत और गोवर्धन बड़ोला के साथ कुली बेगार आंदोलन के रूप में असहयोग आंदोलन को पहाड़ों में सक्रिय रूप से आगे बढ़ाया। 1921 से 1935 तक उन्होंने गढ़वाल में स्वतंत्रता संग्राम से जुड़े विभिन्न आंदोलनों में भाग लिया। Read More
भारत के स्वतंत्रता संग्राम में अनेकों वीर क्रांतिकारियों ने अपना सर्वस्व न्योछावर कर दिया। इन्हीं साहसी योद्धाओं में से एक थे उत्तराखंड के महान क्रांतिकारी भवानी सिंह रावत। गढ़वाल क्षेत्र के सबसे सक्रिय क्रांतिकारियों में गिने जाने वाले भवानी सिंह रावत ने स्वतंत्रता संग्राम में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
जन्म – 8 अक्टूबर 1910, ग्राम पंचूर, चौंदकोट, पौड़ी गढ़वाल, उत्तराखंड
देहावसान – 6 मई 1986
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अनमोल संत साहित्य को आत्मसात् कर निर्गुण साहित्य की रचना तथा निर्गुण सन्तों के आध्यात्मिक रहस्यवाद की सृजना करने वाले हिन्दी के प्रथम डॉ. पीताम्बर दत्त बड़थ्वाल से पूर्व रहस्यवादी कवियों का कदाचित कभी विधि-सम्मत अध्ययन नहीं हुआ। डॉ. बड़थ्वाल के अनुपम शोध प्रयत्नों से निर्गुण स्कूल का साहित्य व दर्शन गंगा सदृश्य प्रवाहमान बना। हिन्दी साहित्य को नया आयाम और सन्त साहित्य राष्ट्रीय व अन्तरराष्ट्रीय पटल पर विख्यात हुआ। 13 दिसम्बर 1902 को लैंसडौन (गढ़वाल) के निकट कौड़िया पट्टी के पाली ग्राम में पंडित गौरी दत्त बड़थ्वाल के घर जन्में पीताम्बर दत्त को साहित्यिक अभिरुचियां विरासत में मिलीं। क्योंकि पिता गौरीदत्त संस्कृत व ज्योतिष के अच्छे विद्वान थे। इन्ही विषयों में बालक पीताम्बर दत्त की आरम्भिक शिक्षा-दीक्षा का घर पर प्रबन्ध किया गया। अपने गांव में ही शिक्षा समाप्त कर उन्हें राजकीय हाई-स्कूल श्रीनगर गढ़वाल में दाखिल किया गया। वहां कुछ समय व्यतीत करने के बाद उन्हें कालीचरण हाई स्कूल लखनऊ भेज दिया गया। इस विद्यालय से वर्ष 1920 में प्रथम श्रेणी में हाई स्कूल परीक्षा उतीर्ण करने के पश्चात तरुण पीताम्बर डी.ए.वी. कॉलेज कानपूर में प्रविष्ट हुए। सन् 1922 में उच्च-शिक्षा हेतु हिन्दू विश्वविद्यालय काशी में दाखिले के साथ ही उन्हें प्रतिकूल पारिवारिक स्थितियों से दो चार होना पड़ा ।
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शिक्षा महानिषेध तथा अनेक सामाजिक गतिविधियों से सम्बन्ध टिचरी माई उत्तराखण्ड की एक प्रसद्घि महिला थी। पौड़ी गढ़वाल के थैलीसैण क्षेत्र के मज्ंयुर गांव के राम दत्त नौटियाल के घर जन्मी नन्ही दीपा की जीवन यात्रा उत्तराखण्ड की नारी के उत्पीड़न सामाजिक कुरीतियों तथा विसंगतियो के विरुद्ध लड़ी गई लड़ाई और साहस का अनुकरणीय उदाहरण है। वीसवीं सदी के आरम्भ मे जन्मी दीपा दो वर्ष में ही मातृ विहीन हो गई और पांच वर्ष की आयु में पिता का प्यार भी नही रहा। गांव के एक चाचा ने दीपा का लालन-पालन किया। साप्ताहिक सत्यपथ (कोटद्वार) के प्रधान सम्पादक पीताम्बर देवरानी तथा पत्रकार कमल जोशी को एक भेंट वार्ता में अपनी शिक्षा के बारे में दीपा ने बताया- बहुत शैतान बड़ी नटखट थी मैं। बचपन में मैं पढती लिखती कैसे तब स्कूल ही कहां थे पहाड़ में। और मेरा था ही कौन जो मुझे पढाता। वैसे भी बेटी को तब पढ़ाता भी कौन था। पेशंन भी अंगुठा लगा कर लेती हुं। अपने अशिक्षित होने की पीड़ा माई को हमेशा सताती रही। सात वर्ष की मांई का विवाह गवांणी गांव के गणेश राम से हुआ। ससुराल में एक दिन बिता कर मांई अपने पति के साथ रावलपिंडी चली गई।
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चिपको आंदोलन की नायिका गौरा देवी अंतर्राष्ट्रीय जगत में ‘‘चिपको वूमन’’ नाम से प्रसिद्ध गौरा देवी ने चिपको आन्दोलन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। नंदा देवी के अन्तिम गांव लाटा में गौरा देवी का जन्म 1925 के आस पास हुआ। 12 वर्ष की आयु में रैणी के मेहरबान सिंह से उनका विवाह हुआ। 22 वर्षीय गौरा देवी पर वैधन्य का कटु प्रहार हुआ। तब उनका एक मात्र पुत्र चंद्र सिंह अढाई वर्ष का था। बूढ़े सास-ससुर की देखभाल तथा खेत-हल के निर्वाह के लिये उन्हें अत्यंत कष्ट झेलने पड़े। गौरा ने पुत्र चन्द्र सिंह को स्वावलम्बी बनाया जब तिब्बत भारत व्यापार बंद हुआ तब चन्द्र सिंह ने छोटी-मोटी ठेकेदारी ऊनी कारोबार तथा मजदूरी द्वारा आजीविका चलाई। इसी बीच पुत्र विवाह, परिवार तथा नाती पोतों के दायित्व को भी गौरा देवी ने निभाया। अपने गांव से बाहर भी वह हर कार्य के लिये सदैव सेवारत् रहीं। 1970 की अलकनंदा की बाढ़ ने नयी पर्यावरणीय सोच को जन्म दिया। चंडी प्रसाद भट्ट ने गोपेश्वर, जिला चमोली में कार्यरत संस्था ‘‘दशौली ग्राम स्वराज्य मंडल’’ के स्वयं सेवकों को बाढ़ सुरक्षा कार्य करने के साथ-साथ बाढ़ आने के कारणों को भी समझाया। भारत-चीन युद्ध के दौरान बढ़ते मोटर मार्ग के बिछते जालों से पर्यावरणीय समस्याएं अधिक हुईं। अतः बाढ़ से प्रभावित लोगों में संवेदनशील पहाड़ों के प्रति चेतना जागी।
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अंग्रेजी हुकूमत में हिन्दूस्तान की जनता उनकी दमनकारी नीति से तो त्रस्त थी ही, लेकिन देश के रियासतों के नवाबों तथा राजाओं ने भी जनता पर दमन और शोषण का कहर ढा रखा था। युद्ध के बहाने अभावग्रस्त प्रजा को लूटा जा रहा था। एसे समय बालक श्री दत्त ने जो बाद में श्री देव सुमन के नाम से विख्यात हुए, टिहरी रियासत के खिलाफ जनक्रान्ति का विगुल बजा कर चेतना पुंज का कार्य किया।
वीर सुमन का जन्म टिहरी गढ़वाल की बमुण्ड पटृ के जौल गांव में 25 मई, 1915 को हुआ था। उनके पिता का नाम पं. हरिराम बडौनी तथा माता का नाम तारा देवी था। इनके दो बड़े भाई पं. कमलनयन बडौनी व पं. परशुराम बडौनी तथा एक बहन गायत्री देवी थी। पिता वैद्य का कार्य करते थे तथा अक्सर गांव से बाहर ही रहते थे। इसलिए पूरे परिवार की देख-रेख माता तारा देवी ही करती थी। अभी बालक सुमन 3 वर्ष का ही था कि उनके पिता का देहांत हो गया। पिता के इस आकस्मिक देहवासन से परिवार का सारा भार माता जी पर आ पड़ा।
बालक सुमन ने प्राईमरी की परीक्षा चंबा स्कूल से पास की और सन 1929ई0 में टिहरी मिडिल स्कूल से हिन्दी की मिड़िल परीक्षा में उत्तीर्ण हुए। मिडल परीक्षा के बाद वे शिक्षा के लिए राज्य की सीमा से बाहर निकल कर देहरादून चले गये। वहां वे कई प्रमुख व्यक्तियों के सम्पर्क में आये। वहां उन्होने लगभग डेढ़ वर्ष तक सनातनधर्म स्कूल में अध्ययन का कार्य भी किया। इसी दौरान वे सन् 1930 के नमक स्त्याग्रह में कूद पड़े ओर इस सिलसिले में उन्हे 13-14 दिन जेल में रखा गया और फिर कम उम्र बालक समझ कर छोड़ दिया। इसके बाद स्कूल अध्यापन के साथ साथ पंजाब युनिवर्सिटी व हिन्दी साहित्य सम्मेलन की परीक्षाओं की तैयारी की। उन्होंने पंजाब विश्वविद्यालय की रत्न भूषण और प्रभाकर तथा हिन्दी साहित्य सम्मेलन की विशारद् और साहित्य रत्न परीक्षाएं सम्मान सहित पास कर ली और इस प्रकार हिन्दी साहित्य अध्ययन के अपने लक्ष्य को प्राप्त किया।
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पेशावर प्रतिरोध के साथियों या आजाद हिन्द फौज के सिपाहीयों की तरह चन्द्र सिंह गढ़वाली का जन्म दिनांक 25 दिसम्बर, 1891 को उत्तराखण्ड के जिला पौड़ी गढ़वाल के ग्राम रणूसेरा पटृ चौथान, दूधातौली में हुआ था। पिता श्री जाथली सिंह अन्य सिपाहीयों के माता-पिता की तरह कृषक थे। फिर भी चन्द्र सिंह ने कुछ शिक्षा ग्रहण गांव में ही की लेकिन प्राथमिक कक्षाओं से ऊपर जाने का सपना पूरा नही हुआ। बाद में फौजी छावनीयों और जेलों ने उसके लिये विद्यालयों का काम किया। जब वह फौज में भर्ती हुआ तब कुमाँऊ में औपनिवेशिक शासन को सौ साल पूरे होने वाले थे। कुली बैगार आन्दोलन मजबूत हो रहा था। कुमाँऊ परिषद जन्म लेने वाली थी। फौज में भर्ती हो जाने से पहले उसने सिर्फ एक यात्रा बदरी-केदार की की थी, बाकी यमय घर, गांव, खेत और जंगलों में ही बीता।
प्रथम विश्व-युद्ध के शुरु हो जाने के बाद उत्तराखण्ड के युवकों का फौज में भर्ती होने का सिलसिला चला और चन्द्र सिंह भी फौज में भर्ती हो गया। फौज में रहते हुए लैन्सडौन, फ्रान्स (1915), मैसापोटामियां (1917) उतर पश्चिमी सीमा प्रान्त (192123) तथा खेबर (1929) या अन्यत्र उसने बड़ी दुनियां देखी और लड़ाई में प्रत्यक्ष हिस्सेदारी की। इसी बीच 1916 में उनकी पत्नी की मृत्यु हो गई और 1917 में दूसरा विवाह कुवंरी देवी से हुआ। लेकिन साल भर में ही उसकी मृत्यु होने के बाद उसकी बहन भागीरथी से शादी कर ली। वह लगभग 15 वर्षों तक बर्तानवी सरकार का वफादार सिपाही बना रहा। इस पेशे से वह अपनी जिन्दगी आराम से व्यतीत कर सकता था, लेकिन सच्चा देश भक्त होने के कारण उसने एसा किया नही।
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