उत्तराखण्ड का इतिहास अनेक महापुरुषों की गौरवमयी गाथाओं से भरा हुआ है। इन्ही महापुरुषों में एक नाम है ‘‘पन्थया दादा’’। पन्थया दादा का जन्म सत्रहवीं शताब्दी के उतरार्द्ध में पौड़ी गढ़वाल की कटूलस्यूं पटृ के प्रसिद्ध गांव सुमाड़ी में हुआ था। बचपन में ही माता-पिता का देहवासन होने के कारण वह अपनी बहन की ससूराल फरासू में रहते थे। उस समय उत्तराखण्ड का गढ़वाल क्षेत्र बावन छोटे-छोटे गढ़ों में बंटा हुआ था। इन्ही गढ़पतियों में से एक शक्तिशाली राजा मेदिनी शाह का वजीर सुमाड़ी का सुख राम काला था।
लोक मान्यताओं के अनुसार जब राजा अजयपाल ने अपनी राजधानी चाँदपूर से देवलगढ़ में स्थान्तरित की थी, तो उन्होने सुमाड़ी क्षेत्र काला जाति के ब्राहमणों को, जो कि मां गौरा के उपासक थे, दान में दे दिया था। यह भूमि किसी भी राजा द्वारा घोषित करो से मुक्त थी। चुंकि एक मात्र सुमाड़ी गांव वासी ही सभी राजकीय करों से मुक्त थे, इसलिये यह व्यवस्था राजा के कुछ दरबारीयों को फूटी आंख नही सुहाती थी। साथ ही वजीर सुखराम काला से कुछ मतभेदों के कारण कुछ दरबारी भी असन्तुष्ट थे। इन्ही असन्तुष्ट दरबारियों द्वारा राजा को सुमाड़ी वालों पर भी कर लगाने के अतिरिक्त अन्य राजकीय कार्यों को करने के लिये उकसाया गया, जिनमें दूणखेणी भी शामिल था। इसी काल में प्रजा पर मैदिनी शाह द्वारा दो अन्य कर स्ँयूदी और सुप्पा भी लगाये गये।
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उत्तराखण्ड का पर्वतीय क्षेत्र सदा से ही त्याग, तपस्या व बलिदान की भूमि रहा है। यहां के निवासी स्वभाव से सरल, कर्म से परिश्रमी, व्यवहार से ईमानदार तथा आदत से सहनशील रहे हैं। आजादी के दीवानों की भी यहां कमी नही रही है। ऐसा ही मातृ भूमि का अमर पुत्र कुमाऊँ क्षेत्र में अल्मोड़ा जनपद के सुदूर चौंकोट क्षेत्र के पठाना ग्राम में पण्डित बल्देव काण्डपाल के घर 1892 में पैदा हुआ। बच्चे की चमक ने उसको ज्योतिराम नाम दिलाया। बालक ज्योति राम की प्राथमिक शिक्षा स्थानिय विद्यालय में हुई। अल्मोड़ा में जूनियर हाई स्कूल व शिक्षक प्रशिक्षण प्राप्त कर स्याल्दें में शिक्षण कार्य आरम्भ किया ।
18 वर्ष की उम्र में पिता जी की छत्र-छाया जाती रही, जिसके कारण परिवार का सम्पूर्ण उत्तरदायित्व उनके भाईयों पर आ गया। ज्योतिराम बचपन से ही साहसी, निड़र व मुसीबतों से जुझने वाले व्यक्ति थे। तीस के दशक में ही पूरे चौंकोट की एक मात्र संस्था थी, जिसका प्रधानाध्यापक का पद ज्योतिराम जी द्वारा सुशोभित किया गया। ज्योति राम जी के मन में बचपन से ही शोषित पीड़ित, सामाजिक भेदभाव, छुआ छूत उन्मूलन व गुलामी की बेड़ी से स्वतन्त्रता प्राप्ति के उद्देश्य से घर से बाहर निकल पड़े उस समय पूरे देश में गांधी जी की लहर चली थी। सुदूर क्षेत्र का यह ग्रामीण निवासी बापू के 1926 में अल्मोड़ा आगमन पर उन से मिला व अत्यधिक प्रभावित होकर स्वतन्त्रता आन्दोलन के रचनात्मक कार्य में जुड़ने के लिये एक मात्र आजीविका का सहारा ‘‘शिक्षक पद’’ से त्याग पत्र दे दिया। गांधी जी से मिलने के बाद ज्योतिराम साबरमती आश्रम गये। वहां उन्होने कताई-बुनाई का प्रशिक्षण लिया तथा कार्यलय में पत्र व्यवहार कार्य भी सम्भाला। पण्डित ज्योतिराम हिन्दी साहित्य के अच्छे ज्ञाता थे। गांधी जी को जब गुजराती व अंग्रेजी में पत्रों का उत्तर देना होता था तो वे महादेव भाई या प्यारे लाल से लिखवाते थे किन्तु जब हिन्दी में पत्रों का उत्तर देना होता था तो पण्डित ज्योतिराम से लिखवाते थे।
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