पटियाला। हिलाँस साँस्कृतिक कला मंच अपना 24वां स्थापना दिवस मनाने जा रहा है। इस उपलक्ष्य में रविवार, 2 अप्रैल 2023 को पीएलडब्ल्यू ऑडिटोरियम में दोपहर 1 से शाम 5 बजे तक भव्य रंगारंग एवं साँस्कृतिक कार्यक्रम ‘पहाड़ की याद’ का आयोजन किया जाएगा। यह जानकारी मंच के संरक्षक धीरज सिंह रावत ने कार्यकारिणी की मीटिंग के बाद दी। मीटिंग में सभी कार्यकारिणी सदस्यों की ड्यूटियां लगाई गईं। कार्यक्रम की सभी तैयारियों का जायजा लिया गया। संरक्षक ने बताया कि समारोह की मुख्यातिथि सांसद महारानी परनीत कौर होंगीं। इस दौरान उत्तराखंडी लोक गाियका सरिता बैनोला और टीम विभिन्न प्रस्तुतियों से दर्शकों का मनोरंजन करेंगी।
मंच की ओर से विशेष सहयोगियों को किया जाएगा सम्मानित
प्रधान हरी सिंह भंडारी ने बताया कि समारोह के दौरान उन सभी विशेष सहयोगियों को सम्मानित किया जाएगा, जिन्होंने मंच के कार्यक्रमों को सफल बनाने के लिए हर भरसक प्रयास किए। मंच जहां उनका सम्मान करेगा वहीं समस्त कार्यकारिणी की ओर से आभार व्यक्त करेगा।
‘गढ़वलि सुदंरकाण्ड’ का किया जाएगा विमोचन
वरिष्काठ सलाहकार जगदीश प्रसाद एवं मुख्सय लाहकार दिनेश सिंह चौहान ने बताया कि कार्यक्रम के दौरान साहित्याकार चंद्रमोहन ढ़ौंडियाल की ओर से गढ़वाली में अनुवादित ‘गढ़वलि सुंदरकांड’ पुस्तक का मंच की ओर से विमोचन किया जाएगा। ऐसा पटियाला में पहली बार होने जा रहा है। चंद्रमोहन ढ़ौंडियाल ने इस पर कहा कि उन्हें अपनी बोली/भाषा की सेवा करने का मौका मिला है। मेरे लिए यह बड़े सौभाग्य की बात है कि श्रीरामचरित मानस के पांचवें अध्याय ‘सुंदरकाण्ड’ का अनुवाद श्रीराम के आशीर्वाद से कर पाया।
उत्तराखंड की सांस्कृतिक झलकियां रहेंगीं आकर्षण
मंच की निर्देश विनीता चौहान ने बताया कि रविवार 2 अप्रैल 2023 को आयोजित कार्यक्रम में उत्तराखंडी संस्कृति की झलकियां विशेष आकर्षण रहेंगी। इस मौके पर उपप्रधान गरीब सिंह रावत, महासचिव वीर सिंह सेनवाल, सचिव प्रदीप सिंह कठैत, कोषाध्यक्ष गोविंद सिंह रावत, उप कोषाध्यक्ष गिरीश चंद मौजूद रहे।
ढाकर मूलतः एक कबीलाई संस्कृति मानी गयी है जो हरियाणा व राजस्थान के सीमान्त क्षेत्रों में रहा करती थी। वर्तमान में इसका अस्तित्व वजूद में है या नहीं, यह बता पाना सम्भव नहीं है लेकिन हरियाणवी में ढाकर अपभ्रंश होकर ढाकड़ हो गया है। ढाकड शब्द का अर्थ अगर गढवाली शब्दकोष में ढूँढा जाय तो यहाँ पहुँचते-पहुँचते यह शब्द धाकड हो जाता है और आश्चर्य तो यह है कि सभी शब्दों का अर्थ मूलतः ताकतवर या बलवान ही होता है।
ढाकर का भावार्थ अगर उस काल परिस्थिति में ढूंढा जाय जब गढवाल कुमाऊं के पहाड़ी क्षेत्रों में सड़कें नहीं थी और सिर्फ दुर्गम पैदल पथ थे तो इसका शाब्दिक अर्थ ढो कर लाना हुआ। भावार्थ की बात करें तो सीधा सा मतलब हुआ किसी भारी बोझे को कंधे में या सिर में रखकर लाना।
ढाकर कब प्रारम्भ हुआ इसका सही-सही प्रांकलन करना बहुत मुश्किल है लेकिन पौड़ी गढवाल के विकासखंड कल्जीखाल पट्टी-असवालस्यूं के मुंडनेश्वर महादेव (खैरालिंग) की उत्पत्ति से जुड़ा एक ढाकरी गीत है :-
“ढाकर पैटी रे माडू थैरवाल।
अस्सी बरस कु बुढया रे माडू थैरवाल।
या फिर
“स्याळआ झमको ओडू नेडू ऐ जावा..
स्याळआ झमकों सात भाई थैर्वाळआ।’ ..।
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भंडाली गांव का इतिहास है कि जब भंडाली गांव में कोई भी मंदिर नही था, कोई देवी-देवता का स्थान नहीं था, तब दो महादेव जिनको (महाद्योउ) बोलते थे, जहां जोगी और जोगन रहते थे। इनके नाम थे, ओंकारेश्वर महादेव और निरंकारेश्वर महादेव, एक महादेव चमेला में और एक मखेला में था। जहां वो गांव वालों के लिए पूजा पाठ करते थे। भगवान शिव शंकर की आराधना पूजा किया करते थे। जिनको संसार निराकार पारब्रह्म का साकार रूप मानता है।
समय के साथ-साथ लोगों के दिलों में भगवान के प्रति आशक्ति कम होने लगी और लोगों ने उन जोगी-जोगन को तंग करना शुरू कर दिया और एक दिन ये दोनौ महादेव अपना आधार खो बैठे। धीरे-धीरे लोगों ने अपने-अपने देवी-देवताओं को मानना शुरू कर दिया। किसी ने देवी के रूप में किसी ने देवता के रूप में अपने परिवार के साथ पूजा पाठ करते थे। यही प्रथा परिवार से धड़ों की तरफ बढ़ते-बढ़ते गांव में दो निरंकार के मन्दिर बन गये और देबी के कई मन्दिर बनने लगे। इसके बाद अपनी अपनी पूजा अपने अपने देवता के रंग में लोग रंगने लग गये। और इसी कारण लोगों में दूरियां हुई और गांव में एक दूसरे के प्रति मन मुटाव होने लगा। इसके बाद आप देख ही रहे हैं कि सारा गांव किस प्रकार बिखर गया है। मेरा कहना इतना ही है कि शिवजी का रूप ही निरंकार देवता है, जिसको हमारे पूर्वज मानते आ रहे हैं और उसी निरंकार की झोली में हमारे सारे देवी-देवता रहते हैं। यदि हम सारे मिलकर महादेव ( शिव) की अर्चना पूजा करते हैं तो सभी देवी-देवताओं की पूजा हो जाती है। इसलिए इस मखेला में बनने वाला शिव मंदिर का नाम है, निरंकारेश्वर महादेव मखेला जो अब भन्डाली के गांववासी इस मन्दिर का नवीनतम रूप में सेवा प्रदान कर रहे हैं। बाकी जो भी आप की कमेटी उचित राय देगी वो सभी को मंजूर होगा।
-मेहरबान सिंह रावत
महासचिव
एकता नगर सेवा समिति
हिलाँस|आर प्रमोद, पटियाला: उत्तराखंड हिलांस सांस्कृतिक कलां मंच (रजि.) के पूर्व अभिनेता हिकमत सिंह बमुंडी जी का लंबी बीमारी के बाद पटियाला में 54 साल की उम्र में निधन हो गया। उन्होंने चंडीगढ़, जोधपुर, पंजाब में कई स्टेज शो से दर्शकों का भरपूर मनोरंजन किया। उनकी कुछ प्रस्तुतियां आज भी उत्तराखंडी संस्कृतिक प्रेमियों के दिल में जीवंत हैं। ऐसे महान कलाकार का जाना मंच के लिए बहुत बड़ी क्षति है, जो शायद ही कभी पूरी हो। मंच में करीब 10 साल तक उन्होंने समाज और संस्कृतिक के प्रचार-प्रसार के लिए अथक प्रयास किए। उनकी जीवनी हमें जीवन के कई पड़ावों पर प्रेरित करती रहेगी। जितना वह संस्कृति प्रेमी थे उतने ही वह गूड़ आध्यात्मिक प्रवृत्ति के मालिक भी थे। अपने गुरु के प्रति उनका अड़िग विश्वास गुरु-शिष्य की एक मिसाल है। अपने अंतिम समय में भी उन्होंने अपनी आत्मिक शक्ति को कमजोर नहीं होने थे। अपने गुरु के प्रति उनके समर्पण को देखते हुए यह निश्चित ही कहा जा सकता है कि अपने नश्वर शरीर को त्यागने के बाद वह परम सत्ता में लीन होकर खुद परमसत्ता हो गए हैं। उनकी कर्म और शुद्ध भावनाएं सदा हमारी प्रेरणा का स्रोत रहेंगी।
भागदौड़ भरे जीवन में किसी के पास इतनी फुर्सत ही नहीं है कि वह अपने सेहत की ओर ध्यान दें, लेकिन अगर समय रहते अपने शरीर के लिए समय नहीं निकाल पाए, तो भी शरीर आपकों संभलने का मौका ही नहीं देगा। इसलिए आइए जानें कि किन बातों का ख्याल रख आप सेहतमंद जीवन जी सकते हैं। कम से कम शरीर की सेहत के लिए इतना तो करना ही पड़ेगा, नहीं करोगे तो बीमारियां कुछ कर देंगी…
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संस्कृति के नाम पर भले ही कई आवाजें उठ रही हों लेकिन इनमें से ज्यादातर उठने वाली आवाज स्वार्थ हित में ही होती हैं। कोई विरला ही इनमें से आगे आता है और अपना स्वार्थ छोड़कर सिर्फ अपनी बोली अपनी भाषा और अपनी संस्कृति के लिए समर्पित हो जाता है। हमारे सामने ऐसी कई मिसाल हैं जिनसे यह साबित हो जाता है कि सभी संस्कृति बचाने की बातें तो करते हैं लेकिन धरातल पर काम करने वाला कोई एक आधा ही होता है। मेरे मन में यह विचार अक्सर उमड़ता है कि क्या हम वाक्य ही सही मायने में उत्तराखंड की संस्कृति को बचाने के इच्छुक हैं या फिर हवा में ही बातें किए जा रहे हैं। इसलिए आओ अब यह मौका है हम पूरा साल ना सही कम से कम जून के महीने में जब बच्चों को भी स्कूल की छुट्टियां पड़ जाती हैं कम से कम इन दिनों में अपने गांव अपने घर जाकर उत्तराखंडी होने का सम्मान प्राप्त करें। Read More
हम अपनी परंपरा, विरासत, सांस्कृतिक थाती के बारे में लिखते हैं। उसे याद करते हैं और उसके प्रति पीड़ा भी व्यक्त करते हैं, किंतु दुर्भाग्यपूर्ण है कि उसे सहजने और उसे आगे बढ़ाने के कोई प्रयत्न नहीं करते। पंजाब का सरसों का साग और मक्की की रोटी आज अंतरराष्ट्रीय पहचान बन चुका है। यही स्थिति गुजरात के ढोकला, महाराष्ट्र के बड़ा पाव, मध्य प्रदेश के पोहा, बिहार के सत्तू की भी है। किसने दिलाई इन स्थानीय व्यंजनों को इतना बड़ी पहचान, किसने बनाया इन्हें इतना बड़ा ब्रांड? क्या किसी सरकार ने? जी, हरगिज नहीं। इन व्यंजनों को बड़ा ब्रांड बनाया वहां के निवासियों ने ही। आज पूरी दुनिया में बिखरा पंजाबी मूल का व्यक्ति अमेरिका, कनाडा, इंग्लैंड, आस्ट्रेलिया में रहते हुए भी मक्के की रोटी व सरसों का साग खाना नहीं भूलता।
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रेजिमेंट की स्थापना
गढ़वाल का आधुनिक सैन्य इतिहास सन 1814-15 के नेपाल युद्ध की सताप्ति से शुरू होता है। जब ईस्ट इंडिया कंपनी ने गढ़वाल और कुमाऊं के पहाड़ी क्षेत्रों से व्यक्तियों को चुनकर सेना खड़ी की। यह भी रिकॉर्ड मिलता है कि नेपाल के कब्जे वाले इलाकों में अधिकता गढ़वाली व कुमांऊनी फोर्स ही थी। 1814 के खलंगा युद्ध में नेपाल फौज में भी अधिकांश यही भारतीय पहाड़ी लोग थे, इन सैनिकों के युद्ध कौशल से प्रभावित होकर अंग्रेजों ने गोरखों की पांच रेजिमेंटों की स्थापना की। जिसमें बहुत सारे वे सैनिक भी थे, जिन्होंने नेपाल युद्ध के बाद आत्मसमर्पण किया था, स्वाभाविक रूप से इस रेजिमेंट में बहुत सारे गढ़वाली भर्ती हुए थे।
अफगान युद्ध में सूबेदार बलभद्र सिंह के अद्वितीय साहस और बीरता को देखकर तत्काली कमाण्डर-इन-चीफ फील्ड मार्सल सर एफएस रॉबर्टस् ने टिप्पणी की थी कि एक कौम जो बलभद्र जैसा आदमी पैदा कर सकती है, उनकी अपनी अलग बटालयिन होनी ही चाहिए।
अफगान युद्ध के दौरान उनके महान योगदान के कारण सूबेदार बलभद्र सिंह को 1879 में ऑर्डर ऑफ मेरिट से सम्मानित किया गया। जब वह फील्ड मार्शल राबर्ट्स के एडीसी थे तब उन्हें ऑर्डर ऑफ ब्रिटिश इंडिया और सर्वोच्च सैनिक के पदक से सम्मानित किया गया।
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सबसे पहले तो मैं हिलाँस.कॉम वालों को बधाई देता हूं, जिनकी मेहनत से आज संस्कृति का प्रचार-प्रसार हो रहा है। वर्तमान में ‘पलायन’ गहरी चिन्ता का विषय बन गया है, इसके लिए जितनी दोषी सरकार है उससे कहीं अधिक उत्तराखंड के प्रवासी दोषी हैं। क्योंकि गांव खण्डहर में बदलते जा रहे हैं। बिखराव बढ़ता जा रहा है रोज ‘पलायन’ की पीड़ा को पहाड़ सहन कर रहा है। मकान की छत कभी भी गिर सकती है, जहां हमने बचपन गुजारा, किलकारियां मारी वहां आज सुनसान है, वीरान है। आखिर इसका जिम्ममेदार कौन है ? केवल और केवल हम, आज पहाड़ में नशा इतना फैल चुका है कि जहां पहले बिना घी, दूध, मक्खन के खाना नहीं खाया जाता था, वहां आज इसकी जगह शराब ने ले ली है। नशे से मुक्ति कैसे मिलेगी?, इस दानव को कैसे नष्ट किया जाए ?, सोचने का विषय है। परंतु क्या इसमें हम प्रवासियों की भूमिका नहीं है ? अन्र्तआत्मा से पूछोगे तो उत्तर मिल जाएगा।
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चौ तरफि हरा-हरा डांडा-कांठा, गाड-गदिन्यों व छंचड़ौं कु छछलाट,
अर वे म मिठु रस मिलांद, चखुलौं कु च्वींच्याट।।
जी हां य तस्वीर च देव भुमि उत्तराखंडे की, जख कि कदम-कदम पर सुंदरता छलकेंद, कुदरते की देन पहाड़ू पर बसियां गौं की सुंदरता मन मा घर बणै दिन्दन, यख कु स्वादुलू खाणू जो कि ताकत भी दींद, जन कि क्वादे कि रूट्टी, झंगरू अर कौंणी कि खीर, अरसा, स्वाला, रोट, दालेकि पकोड़ी, पत्यूड़ा, गैथ का भुटियां रूट्टा, य फिर चैंसू, गथ्वणी, भट्वाणी, गिन्जाडू, छंछिया, तिल अर भांगे कि चटणी, लय्यो कु लूण, कुदाली मोटी रूट्टी, इत्यादि कै प्रकारकु स्वादुलू खाणू बणद उत्तराखंड म।
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