हम अपनी परंपरा, विरासत, सांस्कृतिक थाती के बारे में लिखते हैं। उसे याद करते हैं और उसके प्रति पीड़ा भी व्यक्त करते हैं, किंतु दुर्भाग्यपूर्ण है कि उसे सहजने और उसे आगे बढ़ाने के कोई प्रयत्न नहीं करते। पंजाब का सरसों का साग और मक्की की रोटी आज अंतरराष्ट्रीय पहचान बन चुका है। यही स्थिति गुजरात के ढोकला, महाराष्ट्र के बड़ा पाव, मध्य प्रदेश के पोहा, बिहार के सत्तू की भी है। किसने दिलाई इन स्थानीय व्यंजनों को इतना बड़ी पहचान, किसने बनाया इन्हें इतना बड़ा ब्रांड? क्या किसी सरकार ने? जी, हरगिज नहीं। इन व्यंजनों को बड़ा ब्रांड बनाया वहां के निवासियों ने ही। आज पूरी दुनिया में बिखरा पंजाबी मूल का व्यक्ति अमेरिका, कनाडा, इंग्लैंड, आस्ट्रेलिया में रहते हुए भी मक्के की रोटी व सरसों का साग खाना नहीं भूलता।
यही कारण है कि लंदन, टोरंटो, सिडनी के बडे-बड़े स्टोर्स में पंजाब सरकार के सहकारी उपक्रम मार्कफेड का डिब्बाबंद सोहना ब्रांड सरसों का साग आसानी से मिल जाता है। पंजाब के लोगों का मातृभूमि के प्रति यह योगदान हम सबके लिए एक उदाहरण है।
हम भी ऐसा कुछ कर सकते हैं। आप चाहे कहीं भी रहते हों-दिल्ली, मुंबई, लुधियाना, चंडीगढ़, पटियाला, राजपुरा आदि-आदि, निवेदन सिर्फ इतना है कि जब भी आप या आपका कोई परिचित इन स्थानों से अपने गांव जाए तो कम से कम एक हजार रुपये के पहाड़ी उत्पाद-मंडुआ, झंगोरा, गहथ, भट्ट, पहाड़ी, लूण, जंबू, गंधरायणी आदि जरूर खरीद कर ले जाएं। इतना भर करके हम उत्तराखंड की अर्थव्यवस्था को सुधारने में बड़ा योगदान कर सकते हैं। देशभर में लगभग 6 लाख उत्तराखंडी प्रवासी परिवार हैं। यदि एक परिवार सालभर में एक हजार रुपये के उत्तराखंडी उत्पाद खरीदता है तो यह उत्तराखंड की अर्थव्यवस्था में सालाना साठ करोड़ का योगदान होगा।
…और हां। जब अपने शहर में पहुंचकर इन पहाड़ी व्यंजनों को बनाएं तो अपने किसी गैर पहाड़ी पड़ोसी, मित्र, सहकर्मी को खाने पर जरूर बुलाएं। उसे शान के साथ इन व्यंजनों को परोसें। उन्हें इन व्यंजनों के गुणों व पौष्टिकता के विषय में बताएं। भरोसा रखिए हमने यह सब किया तो अगले एक दशक में उत्तराखंडी व्यंजनों की खुशबू पूरी दुनिया में महकेगी।
-चंद्रशेखर
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