बीर चंद्रसिंह गढ़वाली

veer chander singh garhwaliपेशावर प्रतिरोध के साथियों या आजाद हिन्द फौज के सिपाहीयों की तरह चन्द्र सिंह गढ़वाली का जन्म दिनांक 25 दिसम्बर, 1891 को उत्तराखण्ड के जिला पौड़ी गढ़वाल के ग्राम रणूसेरा पटृ चौथान, दूधातौली में हुआ था। पिता श्री जाथली सिंह अन्य सिपाहीयों के माता-पिता की तरह कृषक थे। फिर भी चन्द्र सिंह ने कुछ शिक्षा ग्रहण गांव में ही की लेकिन प्राथमिक कक्षाओं से ऊपर जाने का सपना पूरा नही हुआ। बाद में फौजी छावनीयों और जेलों ने उसके लिये विद्यालयों का काम किया। जब वह फौज में भर्ती हुआ तब कुमाँऊ में औपनिवेशिक शासन को सौ साल पूरे होने वाले थे। कुली बैगार आन्दोलन मजबूत हो रहा था। कुमाँऊ परिषद जन्म लेने वाली थी। फौज में भर्ती हो जाने से पहले उसने सिर्फ एक यात्रा बदरी-केदार की की थी, बाकी यमय घर, गांव, खेत और जंगलों में ही बीता।

प्रथम विश्व-युद्ध के शुरु हो जाने के बाद उत्तराखण्ड के युवकों का फौज में भर्ती होने का सिलसिला चला और चन्द्र सिंह भी फौज में भर्ती हो गया। फौज में रहते हुए लैन्सडौन, फ्रान्स (1915), मैसापोटामियां (1917) उतर पश्चिमी सीमा प्रान्त (192123) तथा खेबर (1929) या अन्यत्र उसने बड़ी दुनियां देखी और लड़ाई में प्रत्यक्ष हिस्सेदारी की। इसी बीच 1916 में उनकी पत्नी की मृत्यु हो गई और 1917 में दूसरा विवाह कुवंरी देवी से हुआ। लेकिन साल भर में ही उसकी मृत्यु होने के बाद उसकी बहन भागीरथी से शादी कर ली। वह लगभग 15 वर्षों तक बर्तानवी सरकार का वफादार सिपाही बना रहा। इस पेशे से वह अपनी जिन्दगी आराम से व्यतीत कर सकता था, लेकिन सच्चा देश भक्त होने के कारण उसने एसा किया नही।

प्रथम विश्व युद्ध में जीत और जबरदस्त आर्थिक क्षय के बाद अंग्रेज सरकार द्वारा भारत में किये जा रहे दमनों खासकर रौलेट एक्ट और जलियांवाला बाग काण्ड ने चन्द्र सिंह गढ़वाली पर गहरा असर डाला । असहयोग आन्दोलन की साधारण लहर ने उसके राष्ट्रवादी दृष्टिकोण को कुछ और ज्यादा व्यापक किया। धीरे-धीरे अंग्रेज सरकार के प्रति उसके भीतर घृणा पैदा होने लगी।

विश्व युद्ध समाप्त हुआ तथा इस युद्ध में फ्रांन्स में ही 13000 गढ़वाली सिपाही दिवंगत हुए। लड़ते हुए दिवंगत हुए रायफल मैन गबर सिंह नेगी तथा सूबेदार दरबान सिंह नेगी को सबसे बड़े ईनाम ‘‘विक्ओरिया क्रास’’ प्रदान किये गये तथा 1921 में गढ़वाल रायफल को गढ़वाल रायल रायफल्स बनाया गया। दूसरे और प्रथम विश्व युद्ध में लड़े सिपाहीयों के साथ क्रुर मजाक किया। लैन्सडौन में 1800 गढ़वाली सैनिको में से मात्र 900 रखे गये। 15 से अधिक साल की सेवा वालों को पेन्शन देकर घर भेज दिया। कुछ को सेवामुक्त कर दिया और कईयों को हवलदार/सूबेदार से सामान्य पद सिपाही बन कर रहने को कहा गया। इन सब को देख कर चन्द्र सिंह गढ़वाली अंग्रेजी सरकार को समझने लग गया था। दूसरी और वह यह भी सोचने लगा कि हमारा देश भारत किस तरह से आजाद हो सकता है। इसी बीच बाहरी रुप से वह एक अनुशासित सिपाही था। लेकिन भीतरी रुप से उसका भाड़े का फौजी बना रहना सम्भव ना था। देश में होने वाली सभी हलचलों की जानकारी के लिये अनेक वर्जित अखबार, पम्फलैट, पत्रिकाएं और पोस्टर इकटृ करता रहा। इस काम में वह अकेला नही था। उसके सहयोगी हरक सिंह, नारायण सिंह गुसांई, पान सिंह और शेर सिंह बुटौला आदि भी पीछे ना थे। बल्कि हर एक में बैचेनी सी थी।

1920 से 30 के बीच चन्द्र सिंह गढ़वाली में यह कौतुहल एक व्यापक समझ में बदल गया। इस बीच लैन्सडौन छावनी में गांधी टोपी पहनने पर रोक लगा दी गयी थी। 1922 से 29 के बीच वह आर्य समाजियों के सम्पर्क में आया। 1932 में लैन्सडौन छावनी में आर्य समाज की स्थापना की। इसी बीच कुछ और प्रभाव उन पर पड़े। 1925 के बौल्शेविक षड्यन्त्र केस, 1928 के मेरठ षडयन्त्र केस तथा फिर लाहौर षड्यन्त्र केस के बाबत जब उसने प्रताप में विस्तार से पढ़ा तो इसका असर उस पर भी हुआ। विभिन्न घटनाये उसके मानस में अपना असर डालती थी और उसकी भूमिका के लिये कचोटती थी। जो गांधी बैगार आन्दौलन के समय कुमाँऊ नही आ सके थे, वे जून 1929 में नैनीताल, रानीखेत, अल्मोड़ा और कौसानी होकर बागेश्वर आने वाले थे। चन्द्र सिंह जून 1929 में छुटियों में अपने ससूर को अल्मोड़ा के मैगड़ी गांव में मिली जमीन और मकान देखने गया। यही सुना कि गांधी बागेश्वर आ रहे है तो उसने गांधी की सभा में पहुंचने की ठान ली। सिविल वर्दी और फौजी टोपी पहन कर चन्द्र सिंह सभा में पहुंच गया और अग्रिम पंक्ति में बैठ गया। उसकी टोपी को देख कर गांधी जी ने चन्द्र सिंह को कहा कि ‘‘मैं इस फौजी टोपी से नही डरता’’। गढ़वाली ने कहा कि आप चाहो तो इसे बदल सकते हो, तब गांधी जी ने अपने हाथ से टोपी दी और उसने पहनी। गांधी जी इस से प्रभावित हुए।

23 अप्रैल 1930 की पेशावर की घटना इतिहास प्रसिद्ध है। इस समय देश के अन्य हिस्सों की तरह पश्चिमोतर सीमा प्रान्त भी आन्दोलित था। पठानों के संगठित होने से सरकार चिन्तित थी। इसलिए इस मुस्लिम इलाके में हिन्दू फौज बलायी गई थी। पश्चिम-उतर के सीमा प्रान्त के पठान और कबीलाई लोग लाल कुर्ती के रुप में बादशाह खान के नेतृत्व में खुदाई खिदमतगार बन रहे थे और इस क्षेत्र में सविनय अवज्ञा आन्दोलन का आधार भी 20 अप्रैल 1930 से पश्चिमी-उतर सीमा प्रान्त में सविनय-अवज्ञा आन्दोलन शुरु हुआ। 23 अप्रैल से दुकानो पर धरना दिया जाना था। कांग्रेस महासचिव का प्रतिनिधि मण्डल यहां भेजा गया। सरकार ने उसे 22 अप्रैल 1930 को अटक में रोक दिया। इसके विरोध में उसी दिन पेशावर में जुलूस निकाला और शाहीबाग में आम सभा हुई। अगली सुबह यानि 23 अप्रैल 1930 को 9 प्रमुख और कुछ देर बाद अन्य नेता गिरफ्तार कर लिये गये। यह सभी आन्दोलन चलाने के लिये बनाई गई स्थानीय जंगी-कमेटी के सदस्य थे। स्थानीय जनता तथा अन्य गांवो से पेशावर मेले में आये किसानों ने भी उन गाड़ीयों को घेर लिया, जिनमे ये नेता ले जाये जा रहे थे। कांग्रेस जनो के आग्रह पर भी जनता ने घेरा नही उठाया। गोली चलाये जाने पर गुस्सा सारे शहर में फैल गया।

इसी बीच गढ़वाली फौज की एक कम्पनी के सिपाहीयों तथा ओहदेदारो के फालिन होने का हुक्म दिया गया। तब 72 सिपाहीयों के एक दल को पेशावर शहर में ड्यूटी में जाने को तथा 36 को लाईन मे रहने को कहा गया। इस समय 2/18 रायल गढ़वाल राइफल्स के 7 ब्रिटिश अफसर, 11 भारतीय अफसर तथा 458 अन्य पदाधिकारी/सिपाही पेशावर मे थे। चन्द्र सिंह गढ़वाली इन 36 में से एक था। हजारों पठान पेशावर के किस्सा खानी बाजार में पुलिस चौकी के पास खड़े थे। छतों-मकानो से भी हजारों लोग यह सब देख रहे थे। जन समूह के बीच तिरंगा लहरा रहा था। कुछ भी अप्रत्याशित घट सकता था। कप्तान रिकेट ने हुक्म दिया गढ़वाली बटालियन एडवान्स, हुक्म माना गया और गढ़वाली फौज सड़क पर चलने लगी। ‘‘ए कम्पनी हाल्ट’’ कप्तान ने कहा और फौज खड़ी हो गई। सिपाहीयों का चेहरा जनता की तरफ हो गया और रायफल कारतूसों से लैस थी।

एक और अंग्रेजी शासको की भारतीय फौज दूसरी और भारतीय जनता का एक लड़ाकू हिस्सा पठान समुदाय। एक सिक्ख नेता पश्तो में जोशीला भाषण दे रहा था। भीड़ को देख कर कप्तान चिल्लाया ‘‘तुम लोग भाग जाओ, नही तो गोलीयों से भून दिये जाओगे’’। पर जैसे कि किसी ने उसकी आवाज न सुनी हो। कप्तान ने अंतिम चेतावनी सी दी पर इसका भी किसी पर कोई असर नही हुआ। तब गुस्से से लबालब कप्तान ने कहा ‘‘गढ़वाल थ्री राऊण्ड फायर’’ गढ़वाली सीज फायर बांई और से चन्द्र सिंह गढ़वाली ने कहा। और इसी के साथ सभी प्लाटूनों सैक्शनो के पूर्व नियुक्त सिपाहीयो ने जोर से दोहराया ‘‘गढ़वाली सीज फायर’’ रायफलें जमीन पर खड़ी कर दी गयी। दमन करने बुलाये गये सिपाही जनता से मिल गये। चन्द्र सिंह ने अपने कप्तान से कहा ‘‘आप चाहे तो हमे गोलियों से भून दे, लेकिन हम निःशस्त्र जनता पर हमला नही करेंगे। अदभुत और असाधारण था हमारे इतिहास का वह क्षण। लेकिन फिर भी गोलीयां चली और सरकारी रिकार्ड़ के अनुसार उस दिन पेशावर में 30 आदमी मारे गये थे और 33 घायल हुए थे।

एबटाबाद में पेशावर काण्ड के सिपाहीयों पर मुकद्दमा चला। पेशावर की घटनाओं से प्रभावहीन बनाने के लिये सजा देने में उदारता बरती गई। बैरिस्टर मुकुन्दी लाल ने पेशावर काण्ड के सिपाहीयों का केस लड़ा। चन्द्र सिंह को आजीवन कारावास की सजा हुई जो अन्ततः 11 वर्ष की रही। उसके साथ कुल 50 सिपाहीं तथा 17 ओहदेदार जिनमें 7 सरकारी गवाह बन कर छूट गये। 43 सिपाहीयों तथा 17 ओहदेदारों को दण्ड दिया गया। 12 जून 1930 को चन्द्र सिंह तथा उनके साथियों को फौज से निकाला गया। 11 साल, 3 माह तथा 18 दिन की विभिन्न जेलों में रहने के बाद 26 सितम्बर 1941 को चन्द्र सिंह मुक्त हुआ। उसके साथी उससे पहले जेल से बाहर आ चुके थे। नारायण सिंह गुसांई 1937 में और हरक सिंह, द्यपोला उससे भी पहले।

चन्द्र सिंह जेल में ही आर्य समाजी से मार्कसवादी बना। पर यह प्रक्रिया अन्य सिपाहीयों में विकसित नही हुई। 22 दिसम्बर 1946 को लगभग सत्रह साल बाद वह गढ़वाल लौटा। कांग्रेस उसका स्वागत तो कर रहे थे पर कोशिश यह की जा रही थी कि वो जनता से ना मिल सके। गढ़वाल की जनता अपने बेटों को देखना, छूना और सुनना चाहती थी, नागेन्द्र सकलानी ने यह बात समझ ली थी और इस तरह चन्द्र सिंह को हर जगह मिलते रहे। कोटद्वार, दुगड््डा, लैन्सडौन, पौड़ी, श्रीनगर, गुप्तकाशी, अगस्तमुति सभी जगह उसका अपार स्वागत हुआ। कांग्रेसी नेता उससे इस कारण नाराज थे कि यह कम्युनिस्ट अब कांग्रेस में नही आने वाला था। वे उसकी सभाओं में भी नही जा रहे थे। पर जनता आती थी और उसे तथा नागेन्द्र सकलानी को सुनती थी।

1946 के चुनावों में वह कुदने का इच्छुक था और उसकी पार्टी भी। तब तक गढ़वाल के वोटरों में उसका नाम नही था अतः गवर्नर की अनुमति न आ पपने से वह नामजदगी का पर्चा नही भर सका। अन्ततः उसकी पार्टी ने कुशलानन्द गैरोला का समर्थन करने का निर्णय लिया। इस बीच गढ़वाल के सारे इलाकों में वह घूमा। तत्पश्चात पौड़ी को केन्द्र बना कर नागेन्द्र सकलानी, बृजेन्द्र गुप्ता, देवीदत्त तिवाड़ी और राम प्रसाद घिल्डियाल ‘‘पहाडी’’ आदि के साथ पार्टी का काम देखने लगा। एक जनवरी 1948 में किर्तिनगर आन्दौलन के समय वह टिहरी रियासत में गया, जो भारत के आजाद होने के बाद भी कायम थी। 11 जनवरी को कीर्तिनगर में नागेन्द्र सकलानी तथा मोलूराम भरदारी शहीद हुए। चन्द्र सिंह गढ़वाली शहीदों के शवों के साथ आन्दौलन करते हुए खास पटृ होते हुए टिहरी तक पहुंच गए।

चन्द्र सिंह गढ़वाली ब्रिटिश फौज में रह कर भी संवेदनशील और फौज से निकाले जाने पर भी सिपाही बना रहा। एक एसा सिपाही जो अपनी सरकार के अन्यायों के खिलाफ बोलता रहा। वह मानता रहा कि असली सिपाही जनता को कुचलने वाला नही, उसकी भाषा समझने वाला होता है। चन्द्र सिंह बाहर से जितना रफ था भीतर से उतना ही मीठा और विशाल अधिकांश लोग न उसके व्यक्तित्व का बाहरी रुप समझ सके और ना भीतरी।

उसकी जिन्दगी से तीन बड़े सूत्र निकलते हैं- सक्रियता, संवेदनशीलता और प्रतिरोध अपनी तथा साथियों की पेंशन या संग्रामी की मान्यता के लिये भी उसे लड़ना पड़ा पर यह धन से ज्यादा सम्मान की लड़ाई थी। वह अलग पहाड़ी राज्यों का प्रबल समर्थक था। दूधातोली में नगर या विश्वविद्यालय तथा कोटद्वार के पीछे की पहाड़ीयों में भरत नगर की स्थापना, पहाड़ के खनिज-पानी, वनस्पति के उचित इस्तेमाल, पता नही कितने-कितने सपने थे उनके।

दिनांक 1 अक्टूबर 1979 को लम्बी बीमारी के कारण इनका देहवासन हो गया।

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