क्या जलवायू परिवर्तन का मसला इतना सहज है कि कार्बन उत्सर्जन कम करने मात्र से काम चल जाएगा या पृथ्वी पर जीवन बचाने के लिए करना कुछ और भी होगा? इसके लिए हम दूसरे देसों के नजरिए और दायित्वपूर्ति की प्रतीक्षा करें या फिर हमें जो कुछ करना है, हम वह करें जलवायू परिवर्तन के कारण और दुष्टष्प्रभावों के निवारण में हमारी व्यक्तिगत, सामुदायिक, सासकीय अथवा प्रसासकीय भमिका क्या हो सकती है? सबसे महत्पवूर्ण यह है कि जलवायु परिवर्तन, क्या सिर्फ, पर्यावरण व भूगोल विज्ञान का विषय है या फिर कृषि वैज्ञानिकों, जीवन वैज्ञानिकों, अर्थश्शास्त्रियों, समाजसास्त्रियों, चिकित्सा श्सास्त्रियों, नेताओं और रोजगार की दौड़ में लगे नौजवानों को भी इससे चिंतित होना चाहिए? इन प्रशनों के उत्तर में ही जलवायु परिवर्तन के प्रति भारत का पक्ष और पथ का चित्र निहित है।
कुदरत के कैलेण्डर में मौसम संगठन के आंकलन का कैलेण्डर छोटा है। इसलिए 2015 को अब तक का सबसे गर्म वर्ष 2015 को अब तक का सबसे गर्म करार दिया है। मनुस्मृति का प्रलयखण्ड पढ़ा होता, तो श्साायद वह ऐसा न करता फिर भी विश्व मौसम संगठन के रिकाॅर्ड का सबसे गर्म वर्ष तो 2015 ही है 19वीं श्शताब्दी के औसत तापमान की तुलाना में एक डिग्री सेल्सियस अधिक। गौर कीजिए कि पृथ्वी पर जीवन के लिए इस एक डिग्री को वृद्धि के बहुत मायने हैं। वायुमंडल की 90 प्रतिशत गर्मी सोखने का काम महासागर करते हैं।
25 नवंबर 2015 और अगले के कुछ दनिों को आधार बनाकर दिल्ली के मौसम का एक अध्ययन हुआ। अध्ययन में पता चला कि दिल्ली का तापमान कभी उतर रहा है और कभी चढ़ रहा है। मौसम विभाग के मुताबिक न्यूनतम और अधिकतम दोनों तापामन में सामान्य से एक एक डिग्री सेल्सियस की वृद्धि पाई गई। पश्चिमी विक्षोभ के चलते पहाड़ों मेुं बूंदाबांदी हुई किंतु 25, 26, 27 नवंबर को दिल्ली का औसतन तापमान बढ़ गया था। यानी मौसम अपने रूख में अस्थिरता दिखा रहा था। नवंबर के महीने में इस तरह की मौसमी अस्थिरता एक तरह का अपवाद है। यह अपवाद, आगे अपवाद न होकर, नियमित क्रम हो सकता है। यही अस्थिरता आगे और बढ़ सकती है।
मौसम में ऐसे बदलावा बाढ़, चक्रवात सूखा लाएंगे तथा प्रदूशण को और बढ़ाएंगे। जहां जोरदार बारिष होगी, वहीं कुछ समय बाद सूखे का चित्र हम देखेंगे। 100 साल में आने वाली बाढ़, दस साल में आएगी। हो सकता है कि औसत वही रहे, किंतु वर्षा का दिवसीय वितरण बदल जाएगा। नदियों के रुख बदलेंगे। गंगा ब्रह्ममपुत्र के निचले किनारे पर ष्शहर बनाने की जिद की, तो वे डूबेंगे ही। बांध नियंत्रण के लिए नदी तटबंध तोड़ने पड़ेंगे। निचले स्थानों पर बने मकान डूबेंगे। लोगों को ऊँचे स्थानों पर जाना होगा। पानी के कारण संकट, निश्चित तौर पर बढ़ेगा, साथ ही पानी का बाजार भी।
समुद्रः 2015 के पहले छह महीने का महासागरीय तापमान, ़771 से लेकर अब तक के किसी भी वर्ष के पहले छह माह की तुलना में ज्यादा हो गया है। जलवायु परिवर्तन पर बने एक इंटर गवर्नमेंटल पैनल आईपीसीसी के अनुसार, इस सदी में धरती के तापमान में 1.4 से लेकर 5.8 डिग्री सेल्सियस तक की वृद्घि हो सकती है। इससे ध्रुवों और ग्लेशियरों से बर्फ पिघलने की रफ्तार बढ़ेगी। अंदाजा लगाया गया है कि बर्फ के पिघलने के असर को न जोड़ा जाए, तो महज् इस तापमान वृद्घि के सीधे असर के कारण ही समुद्रों का तापमान बढ़ सकता है। तापमान से समुद्री चक्रवातों की संख्या और बढ़ेगी। हिंद महासागर से लेकर प्रशांत महासागर तक सुंदरबन, बांग्ला देश, मिस्र और अमेरिका के फ्लोरिडा जैसे निचले प्रांत सबसे पहले इसका खामियाजा भुगतेंगे। बांग्ला देश का लगभग 15 फीसदी और हमारे शानदार सुंदरबन का तो लगभग पूरा क्षेत्रफल ही पानी में डूब जाएगा। पिछले दशक की तुलना में धरती के समुद्रों का तल भी 6 से 8 इंच बढ़ने की खबर का असर, भारत के सुंदरबन से लेकर पश्चिमी घाटों तक नुमाया हो गया है। समुद्र हर बरस हमारे और करीब आता जा रहा है। इसका मतलब है कि समुद्र फैल रहा है।
इसका यह भी मतलब है कि उसका जलस्तर बढ़ रहा है, मुंबई, विशाखापतनम, कोचोन और सुंदरबन में क्रमशः 0.8, 0.9, 1.2 और 3.14 मिलीमीटर प्रतिवर्ष औसतन 1.29 मिमी की बढ़ोत्तरी हो रही है। करीब 13 साल पहले प्रशांत महासागर के एक टापू किरीबाटी को हम समुद्र में खो चुके हैं। ताज्जुब नहीं कि बनुबाटू द्वीप के लोग द्वीप छोड़ने को विवश हुए। न्यू गिनी के लोगों को भी एक टापू से पलायान करना पड़ा। भारत के सुंदरबन इलाके में स्थित लोहाचारा टापू भी आखिरकार डूब ही गया। जिस अमेरिका में पहले वर्ष में 5 से 7 समुद्री चक्रवात का औसत था, उनकी संख्या 25 से 30 हो गई है। हालांकी भारतीय महासागर में सुमद्र तल में बढ़ोतरी को लेकर भारत के पृथ्वी विज्ञान वभििग मंत्रालय का मानना है, कि इसका कारण जलवायु परिवर्तन या तापमान वृद्घि ही है। यह कहना अभी जल्दबाजी होगी। अटकलें लगाई जा रही हैं कि यह नदियों में पानी बढ़ने अथवा भूकंप के कारण समुद्री बेसिन में सिकुड़न की वजह से भी हो सकता है। इसका कारण प्रत्येक साढ़े 18 साल में आने वाल टाइड भी हो सकता है। किंतु समुद्रों का सामने दिख रहा सच कुछ और नहीं हो सकता। क्या सुनामी, समुद्री चक्रवातों की आवृति और समुद्र के जलस्तर में वृद्घि के संकेतों को हम नजरअंदाज कर सकते हैं? मुंबई और कोकोता तो कतई नहीं।
गंगा जल का अमरत्व यानी अक्षुण्णता हम खो चुके हैं। आंकड़ा बताने की जरुरत नहीं, हमारी कई नदियां, नाला बन चुकी हैं, कई बनने की ओर अग्रसर हैं। सूखे कटोरे में तब्दील होने वाले तालाबों की संख्या लगातार बढ़ रही है। भूजल घटा है। भारत के 70 प्रतिशत भूजल भंडार संकटग्रस्त श्रेणी में है। बाढ़ और सूखा अब भारत के नियमित साथी हैं। इंसान अब इस घटात्तरी और बढ़ोत्तरी का नया शिकार है। किसान, कश्मीर, चेन्नई हो या उत्तराखण्ड सभी को चिंतित होते हमने देखा ही है। चिंता का विषय है कि जलचक्र अपना अनुशासन और तारतम्य खो रहा है। लिहाजा, पानी के कारण अब उद्योग और चिकित्सा जगत भी चिंतित है।
शोध बता रहे हैं कि हमारी सांसें घटी हैं और सेहत भी। हमें ताज्जुब नहीं होना चाहिए कि दुनिया में 40 प्रतिशत मौत पानी, मिट्टी और हवा में बढ़ आए प्रदूषण की वजह से हो रही है। 80 प्रतिशत बीमारियों की मूल वजह पानी का प्रदूषण, कमी या अधिकता ही बताया गया है। पानी में क्रोमियम, लैड, आयरन, नाईट्रेट, आर्सेनिक जैसे रसायन तथा बढ़ आए ई कोलाई के कारण कैंसर, आंत्रशोथ, फ्लोरिसिस, पीलिया, हैजा, टाइफाइड, दिमाग, सांस व तंत्रिका तंत्र में शिथिलता जैसी कई तरह की बीमारियां ामने आ रही हैं। एक अध्ययन ने पानी के प्रदूषण व पानी की कमी को पांच साल तक की उम्र के बच्चों के लिए नंबर वन किलर करार दिया है। आंकड़ें बताते हैं कि पांच साल से कम उम्र तक के बच्चों की 3.1 प्रतिशत मौत और 3.7 प्रतिशत विकलांगता का कारण प्रदूषति पानी ही है। भारत भी इसका शिकार है। आंकलन है कि यदि तापमान एक से चार डिग्री सेल्सियस तक बढ़ गया, तो दुनिया में खाद्य उत्पादन 24 से 30 प्रतिशत गिर जाएगा। मौसम की मार का असर, फसल उत्पादन के साथ-साथ पौष्टिकता पर भी पड़ेगा। भारत, पहले ही दुनिया के सबसे अधिक कुपोशितों की संख्या वाला देश है। आगे क्या होगा?
यूनिवर्सिटी ऑफ फ्लोरिडा के प्रमुख शोधकर्ता डॉ. ग्लेन मॉरिस के अनुसार, तापमान बढ़ने से गैबीयर्डिक्स नामक विषैला समुद्री शैवाल बढ़ रहा है। मछलियां, समुद्र में शैवाल खाकर ही जिंदा रहती है। शैवालों की बढ़ती संख्या के काण, वे इन्हें खाने को मजबूर हैं। यह जहर इतना खतरनाक किस्म का है कि पकाने पर भी खत्म नहीं होता। इन मछलियों को खाने वाले लोग गंभीर रोग की चेपट में आए हैं। तापमान बढ़ने के कारण, समुद्र की पूरी खाद्य श्ऱंखला ही संकट में है। कोई चिंता करे न करे, भारत को करनी चाहिए।
हम भारतीयों के लिए यह इसलिए भी जरूरी है, क्योंकि जीवन विकास के इस मूल संकट का विस्तार यह है कि हमने पिछले 40 सालों में प्रकृति के एक तिहाई दोस्त खो दिए हैं। एशिआई बाघों की संख्या में 70 फीसदी गिरावट आई है। मीठे पानी पर रहने वाले पशु-पक्षी भी 70 फीसदी तक घटे हैं। जैव विविधता के मामले में दुनयििं की सबसे समृद्घ गंगा में डॉलफिन रिजर्व बना है, फिर भी डॉलफिन के अस्तित्व पर ही खतरे मंडराने की खबरें मंडरा रही हैं। क्यों? उष्ण कटिबंधीय क्षेत्रों में कई प्रजातियों की संख्या 60 फीसदी तक घट गई है। यह आंकड़ों की दुनिया है। हकीकत इससे भी बुरी हो सकती है। हम भूलें नहीं कि प्रकृति की कोई रचना नश्प्रियोजन नहीं है। हर रचना के नष्ट होने का मतलब है कि कुदरत की गाड़ी से एक पेच या पार्ट हटा देना। यही हाल रहा, तो एक दिन पृथ्वी का समूचा जीव चक्र ही इतना बिगड़ जाएगा इंसान वहीं पहुंच जाएगा, जहां से चला था। शायद उससे भी बदतर हालत में। पुनः मूषकःभव
समुद्री उठाव के कारण, भारत के पूर्व से लेकर पश्चिमी समुद्री घाट से सटे इलाकों में खारापन बढ़ने का एक बड़ा खतरा तो सामने है ही, खासकर, इसलिए भी कि हमारी नदियां सूख रही हैं और हम नदियों के शेष मीठे पानी को सुमद्र में जाने से रोक रहे हैं। इसका दुष्प्रभाव समुद्री तटों पर बसे इलाकों, मिट्टी, खेती और सेहत पर दिखाई देगा।
खैर, भारती भूगोल का दूसरा बदलता चित्र यह है कि पिछले कुछ सालों में भारत की 90 लाख 45 हजार हेक्टेयर जमीन बंजर हो चुकी है। केंद्रीय शुष्क क्षेत्र अनुसंधान संस्था कजारी का आंकड़ा है कि रेगिस्तान से उड़े रेत कणों के कारण, भारत प्रतिवर्ष 50 वर्गमील खेती योग्य भूमि की उर्वरता खो रहा है। रेत कणों की यह आंधी हिमालय तक पहुंच रही है। ऐसा आईआईटी कानपुर की रिपोर्ट में कहा गया है। आईआईटी कानूपुर के शोध से पता चला है कि था की रेतीली आंधियां हिमालय से टकराकर उसे भी प्रभावति कर रही है।
भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधन संगठन इसरां के अनुसार, थार रेगिस्तान पिछले 50 सालों में औसतन आठ किलोमीटर प्रति वर्ष की रफ्तार से बढ़ रहा है। अन्य इलाकों की तुलना में, रेगिस्तानी इलाकों के वायुमंडल में कार्बन की अधिक मात्रा की उपस्थिति बताती है कि खनन और अरावली से अन्याय के अलावा यह वैश्विक तापमान वृद्घि का भी असर है। रेगिस्तान के इलाकों में अधकि वनस्पति की हरी चादर फैलाकर इसे ढक लें। इसलिए जरुरी है कि हम खनन पर लगाम लगाएं और अरावली से अन्याय करना बंद कर दें। राजस्थान से निकलकर, गुजरात, मध्य प्रदेश, हरियाणा और पंजाब में पैर फैला चुके थार रेगिस्तान में तो यह करना ही होगा। यह प्रक्रिया अभी इलाकों में भी बढ़ेगी। शोध निष्कर्ष यह भी है कि भारत के जिन 32 फीसदी भू भागों को उर्वरा शक्ति लगातार श्रीण हो रही है, उनमें से 24 फीसदी इलाके थार क्षेत्र के आसपास के हैं। इसमें तापमान वृद्घि के अलावा, रासायनिक उर्वरकों, कीटनाश्कों और तेजी से नीचे गिरते भूजल, रेत और बंजर का ग्लेश्यिर व वैश्विक तापमान में वृद्घि का आपस में क्या संबंध हैं। तापमान बढ़ने से मिट्टी की नमी, कार्यक्षमता भी प्रभावित होगी। लवणता बढ़ेगी। जैव विविधता घटेगी। बाढ़ से मृदा क्षरण बढ़ेगा, सूखे से बंजरपन की भारतीय रफ्तार और बढ़ेगी।
जलवायु परिवर्तन का वनस्पति पर एक असर यह होगा कि फूल ऐसे समय खिलेंगे, जब नहीं, खिलने चाहिए। फसलें तय समय से पहले या बाद में पकने से हम आश्चर्य में न पड़ें। गर्मी कीट प्रजनन क्षमता में सहायक होती है। अतः कीट व रोग बढ़ेंगे। परिणामस्वरूप, कीटनाश्कों का प्रयोग बढ़ेगा, जो अंत में हमारी बीमारी का कारण बनेगा। असिंचति खेती सीधे प्रभावी होगी। असिंचित खेती सीधे प्रभावी होगी। असंचित इलाके सबसे पहले सकंट में आएंगे। असिंचित इलाकों में भी कसििन सिंचाई की मांग करेगा। सिंचित इलाकों में तो सिंचाई की मांग बढ़ेगी ही, चूंकि उपलब्धता घटेगी।
विशेषज्ञों के मुताबिक, इन सभी का असर यह होगा कि भारत में चावल उत्पादन में 2020 तक 6 से 7 प्रतिशत, गेहूं में 5 से 6 प्रतिशत आलू में तीन और सोयाबीन में 3 से 4 प्रतिशत कमी आएगी। तापमान में 10 सेल्सियस की वृद्घि हुई तो गेहूं का उत्पादन 70 लाख टन गिर जाएगा। अंगूर जैसे विलासी फल गायब हो जाएंगे। दूसरी ओर, जनसंख्या बढ़ने से खाद्य सामग्री की मांग बढ़ेगी। भारतीय राष्ट्रीय आय में कृषि का हिस्सा पिछले तीन साल में डेढ़ फीसदी घटा है। वर्ष 2009 में सूखे की वजह से 29 हजार करोड़ का खाद्यान्न कम हुआ। खेती में गिरावट का असर सीधे 64 प्रतिशत कृषक आबादी पर तो पड़ेगा ही। खाद्य वस्तुएं महंगी होने से गैर कृषक आबादी पर भी असर पड़ेगा और राजनीति पर भी। जब खाद्य सुरक्षा की कोई गारंटी नहीं बचेगी, तो परिणाम क्या होगा? खाद्य सुरक्षा घटेगी, तो गरीबी बढ़ेगी, अपराध बढ़ेंगे, प्रवृत्तियां और विकृत होंगी। सबसे ज्यादा गरीब भुगतेगा, मुआरे, कृषक और जंगल पर जीने वाले आदिवासी भुगतेंगे।
-साभार: देवभूमि की पुकार