चिपको आंदोलन की नायिका गौरा देवी अंतर्राष्ट्रीय जगत में ‘‘चिपको वूमन’’ नाम से प्रसिद्ध गौरा देवी ने चिपको आन्दोलन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। नंदा देवी के अन्तिम गांव लाटा में गौरा देवी का जन्म 1925 के आस पास हुआ। 12 वर्ष की आयु में रैणी के मेहरबान सिंह से उनका विवाह हुआ। 22 वर्षीय गौरा देवी पर वैधन्य का कटु प्रहार हुआ। तब उनका एक मात्र पुत्र चंद्र सिंह अढाई वर्ष का था। बूढ़े सास-ससुर की देखभाल तथा खेत-हल के निर्वाह के लिये उन्हें अत्यंत कष्ट झेलने पड़े। गौरा ने पुत्र चन्द्र सिंह को स्वावलम्बी बनाया जब तिब्बत भारत व्यापार बंद हुआ तब चन्द्र सिंह ने छोटी-मोटी ठेकेदारी ऊनी कारोबार तथा मजदूरी द्वारा आजीविका चलाई। इसी बीच पुत्र विवाह, परिवार तथा नाती पोतों के दायित्व को भी गौरा देवी ने निभाया। अपने गांव से बाहर भी वह हर कार्य के लिये सदैव सेवारत् रहीं। 1970 की अलकनंदा की बाढ़ ने नयी पर्यावरणीय सोच को जन्म दिया। चंडी प्रसाद भट्ट ने गोपेश्वर, जिला चमोली में कार्यरत संस्था ‘‘दशौली ग्राम स्वराज्य मंडल’’ के स्वयं सेवकों को बाढ़ सुरक्षा कार्य करने के साथ-साथ बाढ़ आने के कारणों को भी समझाया। भारत-चीन युद्ध के दौरान बढ़ते मोटर मार्ग के बिछते जालों से पर्यावरणीय समस्याएं अधिक हुईं। अतः बाढ़ से प्रभावित लोगों में संवेदनशील पहाड़ों के प्रति चेतना जागी।
1972 में गौरा देवी महिला मंगल दल की अध्यक्षा बनी। नवम्बर 1973 और उसके बाद गोबिन्द सिंह रावत, चण्डी प्रसाद भट्ट, वासवानंद नौटियाल, हयात सिंह तथा कई छात्र उस क्षेत्र में आए। आस पास के गांवो तथा रैणी में सभाएं हुईं। जनवरी 1974 में रैणी के जंगल के 2451 पेड़ों की बोली लगने वाली थी। नीलामी देहरादून में थी। वहां चण्डी प्रसाद भट्ट ठेकेदार को अपनी बात कह कर आए कि उसे आंदोलन का सामना करना पड़ेगा।
15 तथा 24 मार्च को जोशीमठ में तथा 23 मार्च को गोपेश्वर में रैणी जंगल के कटान के विरुद्ध प्रदर्शन होने के बावजूद मजदूर रैणी पहुंच गये। 1962 के बाद सड़क बनने से हुई खेतों का मुआवजा देने और वन कटान का एक ही दिन 26 मार्च तय हुआ। सीमांत के गांव मलाटी, लाटा तथा रैणी के लोगों को भी मुआवजा लेने चमोली आना पड़ा। हयात सिंह कटान हेतु मजदूरों को सूचना देने के लिये गोपेश्वर गये। चंडी प्रसाद भट्ट वन विभाग के अधिकारियों के पूर्व नियोजित कार्यक्रम के अनुसार गोपेश्वर में ही फंस गए। गोबिन्द सिंह रावत अकेले पड़ गये। किसी को आशा ना थी कि जंगल बच पाएगा।
26 मार्च की सुबह श्रमिक जोशीमठ से बस द्वारा तथा वन विभाग के कर्मचारी जीप द्वारा रैणी की ओर चले। रैणी से पहले ही सब उतर गये और ऋषि गंगा के किनारे किनारे रागा तथा देवदार के जंगल की और बढ़े। एक लड़की ने हलचल देखी। वह महिला मंगल की अध्यक्ष गौरा देवी के पास पहुंची। पारिवारिक संकट झेलने वाली गौरा देवी पर आज एक सामुदायिक उत्तरदायित्व निर्वाह का बोझ आ पड़ा था। घर के कार्यों में व्यस्त 21 महिलाएं तथा कुछ बच्चे देखते देखते जंगल की ओर चल पड़े। उनमें बती देवी, महादेवी, गौरा देवी, भूसी देवी, लीलामती, उमा देवी, हरकी देवी, बाली देवी, पासा देवी आदि शामिल थीं। आशंका और आत्म विश्वास के साथ वे आगे बढ़ रही थीं। इन सबने खाना बना रहे मजदूरों के समीप जा कर कहा, ‘‘भाईयों यह जंगल हमारा मायका है। इससे हमें जड़ी-बूटी, शब्जी, फल, लकड़ी मिलती है। जंगल काटोगे तो बाढ़ आएगी। हमारे बगड़ बह जायेंगे। खाना खा लो और फिर हमारे साथ चलो, जब हमारे मर्द आ जायेंगे तो फैसला होगा’’?
ठेकेदार और जंगलात के आदमी उन्हें डराने धमकाने लगे। उन्होंने काम में बाधा डालने पर गिरफ्तारी की धमकी दी लेकिन महिलाएं डरी नहीं, कोई प्रतिक्रिया न हुई। मगर उन सब के भीतर छिपा रौद्र रुप तब गौरा देवी के सामने प्रकट हुआ जब एक ने बन्दूक निकाल कर बन्दूक का लक्ष्य उनकी और साधा। अपनी छाती तान कर गरजते हुए उन्होंने कहा मारो गोली, और काट लो हमारा मायका, मजदूरों में भगदड़ मच गई। मजदूर नीचे खिसकने लगे। राशन लेकर आती हुई मजदूरों की दूसरी टोली भी रोक ली गई। अतंतः सभी नीचे चले गये। ऋषि गंगा के तट पर एक नाले पर बनाया सीमेंट का पुल भी आक्रोश में आकर महिलाओं ने उखाड़ फैंका व जंगल का रास्ता अवरुद्ध कर दिया। मार्ग और जंगल सेतु पगडंडी पर महिलाएं रुकी रहीं। ठेकेदार के आदमियों ने पुनः गौरा देवी को डराने धमकाने का प्रयास किया। यहां तक कि पुनः गौरा देवी को डराने धमकाने का प्रयास किया। उनके मुंह पर थूक दिया, किन्तु गौरा देवी में विद्यमान मां ने नियन्त्रण रखा। वे चुप रहीं। उसी स्थान पर सब महिलाएं बैठी रहीं।
अगली सुबह रैणी के गोबिन्द सिंह रावत तथा चण्डी प्रसाद भट्ट और हयात सिंह भी आ गये। मायका बच गया। 27 मार्च और फिर 31 मार्च को रैणी में सभा हुई और बारी-बारी से वन की निगरानी आरम्भ हुई। उन्होने मजदूरों को समझाया बुझाया। 3 तथा 5 अप्रैल को प्रदर्शन किये। 6 अप्रैल को प्रभाकीय वनाधिकारी से वार्ता हुई। 10 तथा 11 अप्रैल को पुनः प्रदर्शन किये। इस कारण पूरे तंत्र पर इतना भारी दबाव पड़ा कि डॉ. विरेन्द्र कुमार की अध्यक्षता में रैणी जांच कमेटी बिठाई गई और जांच के बाद रैणी के जंगल के साथ अलकनंदा में बाईं ओर से मिलने वाली समस्त नदियों ऋषिगंगा, पतालगंगा, गरुड़गंगा, विरही और मंदाकिनी के जल ग्रहण क्षेत्रों तथा कुंवारी पर्वत के जंगलो की सुरक्षा की बात उभर कर सामने आई और सरकार को इस हेतू निर्णय लेने पड़े। सीमान्त का खामोश सा गांव रैणी दुनिया का एक चर्चित गांव हो गया। गौरा देवी और अन्य महिलाएं चिपको का प्रतीक बन गईं।
गौरा देवी के इस साहसपूर्ण कारनामे को देखकर अंग्रेजी की एक कहावत याद आती हैः ‘‘स्टिच इन टाइम, सैंस नाईन’’, क्योंकि गौरा देवी के नेतृत्व में स्त्रियों ने कुल्हाड़ों से वृक्षों की जो रक्षा की वह घटना विश्व में पर्यावरण चेतना के नवजागरण का सूत्रपात कर गई। उसके परिणामस्वरुप सरकार ने ठेका प्रणाली समाप्त कर दी। उत्तर प्रदेश वन निगम की स्थापना की जो त्रुटिपूर्ण सरकारी नीति के विरुद्ध महिलाओं के अहिंसक आन्दोलन की विजय थी।
उत्तराखण्ड में शुरु चिपको आन्दोलन उत्तर में हिमाचल, पूर्व में बिहार, दक्षिण में कर्नाटक, पश्चिम में राजस्थान तथा विध्यांचल तक फैला। निःस्वार्थ, सरल, समाजसेवी तथा निराभिमान महिला गौरा देवी में निराली संगठन शक्ति और निर्णय क्षमता थी। दुःख का प्रसंग तो यह है कि आगे चलकर चिपको आन्दोलन के नेताओं ने कही गौरा देवी का नाम तक नही लिया। एसा अपने जीवन में उन्हे इसका अहसास होने लगा था। ‘‘क्या मिला हमें यह लड़ाई जीत कर? तुम्हारे जैसा तो बहुत आया, लाखो लोग आया, देशी विदेशी लोग। सब एक ही बात पूछता, गौरा देवी कैसे बचाया तुमने जंगल? क्या किया? कैसे किया? हम तुम्हारा दुःख तकलीफ लिखेगा, सरकार तक पौंछाएगा पर इजू कुछ नही मिला। थक गये हैं हम बताते-बताते अब नही बताएगा’’। इन शब्दो में अभिव्यक्त होती है विश्वविख्यात ‘‘चिपको वूमन’’ गौरा देवी की वास्तविक वेदना?
गौरा देवी ने अपने अन्तिम दिन अति कष्टमय स्थिती में काटे। उन्हें कहीं से कोई सहायता नही मिली, न गांवो की समस्याओं का समाधान हुआ। गौरा का इतिहास पत्रकारों, फाईलों, चित्रों के लिये एक विषय मात्र बन कर रह गया। ठेकेदारों से वनों को बचाने के लिये इस प्रसंग को कैलीफोर्निया और स्वीडन तक के पर्यावरण विदों ने सराहा। सम्पूर्ण हिमालयी क्षेत्र में प्रकृति दोहन के विरुद्ध रैणी का यह प्रसंग एक नये अध्याय के रुप में चर्चित होकर एतिहासिक क्षण बन गया।
1974 में चम्याला, बडियारगढ़ की महिलाओं की एक टोली लोस्तु और नैलचामी के गांवो की पैदल यात्रा कर बालगंगा घाटी पहुंची तो वहां की आंदोनकारी महिलाओं ने उनका हार्दिक स्वागत किया। इस यात्रा ने गांव-गांव और घर-घर में चिपको आन्दोलन का महामंत्र पहुंचाया।
18 फरवरी 1974 को आरम्भ हुई यह यात्रा टोली 20 फरवरी को जब बालगंगा घाटी में ठेकेदारें के गढ़ नेलचामी पहुंची तो हलचल मच गई। वन ठेकेदारों को संबोधित करते हुए यात्रा टोली ने कहा कि वनों का व्यापारिक दोहन बंद हो जाने पर किसी के भी बैरोजगार होने का सवाल नही है। युद्धस्तर पर पेड़ों की खेती कर हिमालय के निवासी अपना और देशवासीयों का भली प्रकार से पोषण व रक्षण कर सकेंगे। आंदोलनकारीयों ने नैलचामी के आम नागरिकों को निहित स्वार्थो के बहकावे में ना आने के प्रति सचेत किया।
इस प्रकार जंगल संरक्षण के लिये गांवों में हर स्त्री पुरुष, बच्चों को जागरुक करती हुई गौरा देवी जीवन के अन्तिम दिनों में गुर्दे और पेशाब की बीमारी से पीड़ित रहने लगी। उन्हे पक्षघात भी हुआ। उनके पुत्र व कुछ नजदीकी लोगो ने उनका काफी इलाज कराया। लेकिन 4 जुलाई, 1991 में गौरा देवी का निधन हो गया।
गौरा देवी आज इस संसार में नही है, लेकिन वह रैणी की हर महिला के अन्दर जीवित है। गौरा देवी के प्रयत्नों का ही फल था कि गांव-गांव ‘‘चिपको आंदोलन’’ फैला और अन्तर्राष्ट्रीय हो गया।